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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः।
भषजकमान
(५८९)
में दाह होता है । शरीर विकृतवर्णयुक्त होता है, उदर में पवन भरा रहता है। वह दुर्बल होता है, उसकी अग्नि अत्यंत मंद होती है। अर्थात् ये रूक्ष शरीरवाले के लक्षण हैं । इस के अनंतर सम्यक् स्निग्ध (चिकना) शरीर के लक्षणों को संक्षेप में कहेंगे । उस को सुनो ॥ १५॥ १६ ॥
सभ्यस्निग्ध के लक्षण. अवश्यसस्नेहमलप्रवर्तनं घृतेतिविद्वेष इहांगसादनम् ॥ भवेच्च सुनिग्धविशेषलक्षणम् तथाधिकस्नेहनलक्षणं ब्रुवे ॥ १७ ॥
भावार्थ:-- अवश्य ही स्नेहयुक्त मल का विसर्जन होना, घृतपान व खाने में द्वेध व अंगों में ग्लानि होना, यह सम्यक् स्निग्ध के लक्षण हैं । अब अधिक स्निग्ध का लक्षण कहेंगे ॥ १७ ॥
आतस्निग्ध के लक्षण. गुदे विदाहोऽतिमलप्रवृत्तिरप्यरोचकैर्याननतः कोद्गमः ॥ प्रवाहिकात्यंगविदाहमोहनं भवेदतिस्निग्धनरस्य लक्षणम् ॥१८॥
भावार्थ:--गुद स्थान में दाह, अत्यधिक मल विसर्जन, [अतिसार] अरोचकता, मुख से कफ का निकलना, प्रवाहिका, अंगदाह व मूर्छा होना, यह अतिस्निग्ध के लक्षण हैं !॥ १८ ॥
__ अतिस्निग्धकी चिकित्सा. सनागरं सोष्णजलं पिबेदसौ समुद्षौदनमाशु दापयेत् ॥ सहाजमोदाग्निकसंधवान्वितामला यवागूमथवा प्रयोजयेत् ॥ १९॥ . भावार्थ:- उस अतिस्निग्ध शरीरवाले रोगी को उस से उत्पन्न कष्ट को निवारण करने के लिए शुंठी को गरम पानी में मिला कर पिलावे । एवं मूंग के यूष [ दाल ] के साथ शीघ्र भात खिलाना चाहिए । अथवा अजमोद, चित्रक व सैंधालोण से मिश्रित थवाग् देनी चाहिए ॥ १० ॥
घृत ( स्नेह ) पान में पथ्य. घृतं मनोहारि रसायनं नृणामिति प्रयत्नादिह तत्पिति ये ॥ सदैव तेषामहिमोदकं हितम् हिता यवागूरहिमाल्पतण्डुला ॥२०॥
भावार्थ:--मनुष्यों के लिये घृत रसायन है । ऐसे मनोहर घृत को जो लोग प्रयत्नपूर्वक पीते हैं, उन को हमेशा गरम पानी का पीना हितकर होता है । एवं थेडे
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