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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३०५) के अंगोपांग आदिको आश्रित कर, शारीरिक, मानसिक, औपसर्गिक, सहज आदि रोगोंको उत्पन्न करते हैं। उनको [ अच्छीतरहसे जानकर ] युक्ति से युक्त, तत्तद्योग्य चिकित्सा द्वारा जीतें ॥ ६३ ॥ नाडीव्रण निदान व चिकित्सा. प्रपूर्णपूयः श्वयथुः समाश्रयो । विदार्य नाडी जनयत्युपेक्षितम् ॥ स्वदोषभेदादवगम्य तामपि । प्रसादयेच्छोधनतैलवर्तिभिः ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-मवादसे भरे हुए व्रणका शोधन करनेमें उपेक्षा करें अर्थात् पीडन शोधन आदिके द्वारा मवादको न निकाले तो वह मवाद त्वचा, मांस सिरा, स्नायु, आदिको भेद कर अन्दर अन्दर गहग प्रवेश करने लगता है । इसको नाडीव्रण ( नासूर ) कहते हैं। (इसकी गति नाडी ( नली) के समान, एक मार्गसे होनेके कारण इसे नाडीव्रण कहा गया है । ) इस नाडीवण को भी उसके दोषभेदोंको ( इसके लक्षणोंसे ) जानकर उनके योग्य शोधन तैलसे भिगोयी गई बत्तियों के प्रवेश आदिके द्वारा ठीक करना चाहिये ॥ ६४ ॥ मुखकांतिकारक घृत. काश्मीरचन्दनकुचंदनलोधकुष्ठ-। लाक्षाशिलालरजनीद्वयपद्ममध्य ।। मंजिष्ठिकाकनकगरिकया च साध । काकोलिकाप्रभृति मृष्टगुणं सुपिष्टं ॥६५॥ तस्माच्चतुर्गुणघृतेन सुगंधिनाति-। यत्नाद्धताद्विगुणदुग्धयुतं विषाच्य ॥ व्यालेपयेन्मुखमनेन घृतेन तज्जान् । रोगान्व्यपाह्य कुरुते शशिसन्निभं तम् ॥ ६६ ॥ भावार्थ:----फेसर, वंदन, लालचंदन, लोध, कृश, लाख, मैनसिल, हरताल, हलदी, दारुहलदी, कमलकेसर, मनीट, सोनागेरु, काकोली, क्षीर काकोली, जीवक ऋषभक, मैदा, महामेदा, बुद्धि, ऋद्धि इन औषधियोंको चतुर्गण (चौगुना ) सुगंवि घी, धीसे द्विगुण ( दुगुना ) दूध इनसे प्रयत्न पूर्वक घृत सिद्ध करें। इस धृत (Snow) को मुखपर लेपन करनेसे मुखमें उत्पन्न व्यंग, नीलिका, आदि समस्त रोग नाश होकर मुख चंद्रमाके समान कांतियुक्त होकर सुंदर होजाता है ॥६५॥६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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