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कल्याणकार
दोषत्रयाव जनितं परिहृत्य तस्याऽ । साध्यत्वमप्यतुविचार्य भिषग्यते ॥ ६५ ॥
भावार्थ:- मेदो विकार से उत्पन्न स्वरभेद में कफज स्वरभेद की जो चिकित्सा कही है, वही चिकित्सा करें । त्रिदोषज व रक्तज भेद को तो असाध्य कह. कर, उस असाध्यता के विषय में अच्छीतरह विचार कर चिकित्सा के करने में प्रयत्न करें ।। ६५ ।।
स्वरभेदनाशक योग.
भंगाख्यपवतासित सत्तिलान्वा । संभक्षयन्मरिचसच्चणकमगुंफम् || क्षीरं पिवेत्तदनुगव्यं घृतप्रगाढं । सोष्णं सशर्करमिह स्वरभेदवेदी ।। ६६ ॥
भावार्थ:-स्वरभेद से संयुक्त रोगी, भांगरे के पत्ते के साथ, अथवा मिरच के साथ चने की डाली को खाकर ऊपर से गय मिला हुआ गरम दूध पीये ॥ ६६ ॥
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उदावर्त रोगाधिकारः अत्रोदावर्तमप्यातुरं ज्ञा- 1 त्वा यत्नात् कारणलक्षणश्च । सभ्देषज्यैस्साधयेत्साधु धीमान् ! तस्योपेक्षा क्षिप्रमेव क्षिणोति ॥ ६७ ॥
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भावार्थ:- उदावर्त रोग को, उसके कारण व लक्षणों से परीक्षा कर अच्छी औषधियों के प्रयोग से उस की चिकित्सा बुद्धिमान् वैद्य करें । यदि उपेक्षा की जाय तो वह शीघ्र ही प्राणवात करता है | ॥ ६७॥
काले तिलों को घृत व शक्कर से
उदावर्त संप्राप्ति.
वातादीनां वेगसंधारणाद्यः । सर्पेद्राशन्यग्निशस्त्रोपमानः ॥ क्रुद्धोऽपान प्यूर्ध्वमुत्पयतीत्री | दानव्याप्तः स्यादुदावर्तरोगः ॥ ६८ ॥
भावार्थ::-जब यह मनुष्य वातादिकोंके वेग को रोकता है उस से कुपित अपानवायु ऊपर जाकर उदानवायु में व्याप्त होता है
लब
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