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(६२८)
कल्याणकारके
संपाद्य स्नेहगंधं मुखमखिलतनोश्चेद्रियाणां प्रले।
कुर्यादार्योऽतिपीडाक्रममिह विधिनास्थापयेत्तं विदित्वा ॥ १४३॥ भावार्थः-स्नेह बस्ति के प्रयोग करते समय, अधिक वेग से पिचकारी को दबावें तो, स्नेह अधिक ऊपर चला जाता है जिस से श्वास, कास, अरुचि, अधिक थूक आना, शिरोंगौरव [ शिरका भारीपना ] और अधिकनिद्रा ये विकार उत्पन्न होते हैं। मुख, स्नेह के गंध से युक्त होता है ( मुख की तरफ से स्नेह की बास आने लगती है ।) शरीर, और इंद्रियों में उपलेप होता है । ऐसा होनेपर, जो पीडा [ रोग] उत्पन्न हुई है, उसे जानकर, उस के अनुकूल आस्थापनबस्ति का प्रयोग विधि प्रकार करें । १४३ ॥
असंस्कृतशरीरीको प्रयुक्तस्नेहका उपद्रव. निर्वीर्यो वाल्पमात्रेऽप्यतिमृदुरिह संयोजितः स्नेहबस्ति- ।. ने प्रत्यागच्छतीह प्रकटविदितसंस्कारहीनात्मदेह ।। स्नेहः स्थित्वोदरे गौरवमुखविरसाध्मानशूलावहःस्यात् ।
तत्राप्यास्थापनं तद्धिततनुमनुवासस्य वासावसाने ॥ १४४ ॥ भावार्थ:-स्वेदन विरेचनादिक से जिस के शरीर का संस्कार नहीं किया गया हो, उसे शक्तिरहित, अल्पमात्र व मृदु, स्नेहबस्तिका प्रयोग करें तो वह फिर बाहर नहीं आता है। सेल पेट में ही रह कर पेट में भारीपना, मुख में विरसता, पेट का अफराना, शूल आदि इन विकारों को उत्पन्न करता है। ऐसी अवस्थामें अनुवासन बस्तिका प्रयोग कर के पश्चात् आस्थापन बस्ति देवें ॥ १४४ ॥
अल्पाहारीको प्रयुक्तस्नेहका उपद्रव. वल्पाहारेऽल्पमात्रः सुविहितहितवत् स्नेहबस्तिन चैवं । । तत्कालादागमिष्यत्लमविरसशिरोगौरवात्यंगसादान् ॥ कृत्वा दुःखपदः स्यादिति भिषगधिकास्थापनं तत्र कुर्या ।
दार्यो वीर्योरुवी?षवृतमखिलाकार्यकार्येकवेदी ।। १४५ ॥ भावार्थ:- स्वल्प भोजन किये हुए रागी को, अल्पमात्रा में स्नेहबस्ति का प्रयोग करें, चाहे वह हितकारक हो, व विधिप्रकार भी प्रयुक्त हो तो भी वह तत्काल बाहर न आकर ग्लानि, मुख में विरसता, शिरका भारीपना, अगों में अधिक थकावट आदि विकारों को उत्पन्न कर के अत्यंत दुःख देता है। ऐसी अवस्था में कार्य
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