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कल्या गकारक
भावार्थ:-- आंख के कोये को आश्रित कर जो मुदु, लाल, अत्यंत पीडा कर ने वाला, लम्बा अंकुर ( उत्पन्न होकर ) बढ़ता है । जिसको छेदन करने पर भी फिर उगता रहता है, इसे रक्तार्श कहते हैं ॥ १९४ ॥
लगणलक्षण
अवेदनो ग्रंथिरपाकवान्पुनः । स वर्त्मनि स्थूलतरः कफात्मकः ॥ स्वलिंगभेदो लगणोऽथ नामतः । प्रकीर्तितो दोषविशेषवेदिभिः ॥ १९५॥
भावार्थ:- कोये में वेदना व पाक से रहित स्थूल, कफ से उत्पन्न, कफज लक्षणों से संयुक्त जो ग्रंथि (गांठ) उत्पन्न होता है उसे वातादि दोषों को विशेष रीति से जानने वाले लगण रोग कहते हैं ॥ १२५ ॥
बिसवलक्षण
सुसूक्ष्मगंभीरगतांकुरो जले । यथा दिसं तद्वदिहापि वर्त्मनि ॥
स्रवत्यज बिसवज्जलं मुहुः । स नामतस्तद्विसवर्त्म निर्दिशेत् ॥ १९६ ॥ भावार्थ:-- :- कमळ नाली जो जलमें नीचे तक गहरी चली जाती है और सदा जलमें रहने से उस से जलस्राव होता रहता है, उसी प्रकार कोये में, अतिसूक्ष्म व गहरा गया हुआ अंकुर हो, जिसमे हमेशा पानी बहता रहता हो, इसे बिसवर्त्मरोग कहना चाहिये || १९६ ॥
पक्ष्मकोपलक्षण
यदैव पक्ष्माण्यतिवात कोपतः । प्रचालितान्यक्षि विशंति संततम् ॥ ततस्तु संरंभविकारसंभवः । स पक्ष्मकोपो भवतीह दारुणः ॥ १९७ ॥ भावार्थ:- : बात के प्रकोप से, जब कोये के बाल चलायमान होते है और आंख के अन्दर प्रवेश करते हैं (वे नेत्रों को रगड़ते हैं ) तब इस से आंख के शुक कृष्ण भाग में शोध उत्पन्न होता है । इसे पक्ष्मकोप कहते हैं । यह एक भयंकर व्याधि है ॥ १९७ ॥
वर्मरोगों के उपसंहार
इतीह वर्माश्रयरोगसंकथा | स्वदोषभेदाकृतिनामलक्षणैः ॥ अथैकविंशत्युदितात्मसंख्यया । प्रकीर्तिताः शृलगतामयान्वे ॥ १९८ ॥
१ यह रक्त के प्रकोप से उत्पन्न होता है इसलिये रक्तारी कहा है ॥
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