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क्षुदरोगाधिकारः
अपरिक्लिन्नवर्मलक्षण. ..... मुहुर्मुहुधौतमाह वर्त्म यत् । प्रदिह्यते तत्सहसव सांप्रतम् ॥
अपाकवत्स्यादपरिप्रयोजितं । कफोद्भव क्लिन्नकवर्मनामकम् ॥१९॥
भावार्थ:---कोये को बार २. धोनेपर भी शीध्र ही चिपक जावें और पके नहीं इसे अपरिक्लिन्न वर्म ( अक्लिन्नवम ) कहते हैं । यह कफ से उत्पन्न होता है ॥१९०
__ वातहतवर्म लक्षण .विमुक्तसंधिप्रविनष्टचेष्टितं । निमील्यते यस्य च वर्त्म निर्भरम् ॥ । भवेदिद वातहताख्यवर्त्मकं । वदंति संतः सुविचार्य वातजम् ॥ १९१ ।।
भावार्थ:-जिस में कोथे की संधि खुलजावें ( पृथक् हो जायें ) पलक चेष्टा रहित हो, अर्थात् खुलने मिचने वाली क्रिया न हो, पलक एकदम बंद रहे, तो इसे सत्पुरुष अच्छीतरह... विचार - करके - वातहतवर्म कहते हैं। यह वातसे उत्पन्न होता है ॥ १९१ ॥
अर्बुद लक्षण. सुरक्तकल्प विष विलंबितं । सवमतोऽतस्थमवेदनं धनम् ॥ भवेदिदं ग्रंथिनिभं तदर्बुदं । व्रति दोषागमवेदिनो बुधाः ॥ १९२ ॥
भावार्थः-कोये के भीतर, लाल, विषम ( कष्टकारी) अवलम्बित, वेदना रहित, कडा, ग्रंथि ( गांठ ) के सदृश जो शोथ होता है, उसे दोषशास्त्र को जानने वाले विद्वान्, अर्बुद ( वर्मार्बुदु ) कहते हैं ॥ १९२ ॥
निमेषलक्षण सिरां स्वसंधिप्रभवां समाश्रितः । स चालयत्याश्वनिलश्च वर्त्मनि ॥ निमेषनामामयमामनंति तं । प्रभंजनोत्थं स्फुरसन्मुहुर्मुहुः ॥ १९३ ॥
भावार्थ:-कोये की संधि में रहने वाली निमेषिणी ( पलकों को उघाड ने मूंदने वाली ) सिरा, नस में आश्रित वायु, शीघ्र है। कोयों को चलायमान करता है, इस से वह वार २ स्फुरण होता है । इसलिये इस बातजरोग को निमेष कहते
रक्ताहीक्षण स्ववर्त्य संश्रित्य विवर्धते मृदु- । स्सलोहिली दीपतरांकुरोऽतिरक् ॥ स लोहितार्शी भवतीह नामतः । प्ररोहति छिन्नमपीह तत्पुनः ॥१९४॥
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