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कल्याणकारक
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क्लिष्टवर्म लक्षण. समं सवर्ण मृदुवेदनान्वितं । सताम्रवर्णाधिकमेव वा सदा ॥ स्त्रवेदकस्माद्रुधिरं स्ववर्त्मतो । भवेदिदं क्लिष्टविशिष्टवर्त्मकम् ॥ १८६॥
भावार्थ:-कोया, समान हो अर्थात् शोथ रहित हो, स्वाभाविक वर्णसे युक्त हो अथवा हमेशा ताम्रवर्ण [ कुछ लाल ] ही अधिकता से हो और अकस्मात् कोयेसे रक्तका स्राव हो तो, इसे क्लिप्टवर्म रोग कहते हैं ॥ १८६ ॥
कृष्णकर्दम लक्षण. उपेक्षणाक्लिष्टमिहात्मशोणितं । दहेत्ततः क्लेदमथापि कृष्णताम् ॥ व्रजेत्ततः प्राहुरिहाक्षिभिन्नकाः । स्ववेदकाः कृष्णयुतं च कर्दमम् ॥१८७
भावार्थ:-उपर्युक्त क्लिष्टवर्म रोगकी उपेक्षा करनेसे, वह वर्मगत रक्त को जलावें, तो उस में क्लेद [ कीचडसा ] उत्पन्न होता है, और वह काला हो जाता है। इसलिये अक्षिरोगों को जाननेवाले आत्मज्ञानी ऋषिगण, इसे कृष्णकर्दम रोग कहते हैं ॥ १८७ ॥
श्यामलवर्म लक्षण. सबाह्यमंतश्च यदाशु वर्त्मनः । प्रमूनक श्यामलवर्णकान्वितम् ॥ । वदंति तच्छ्यामलवमनामकम् । विशेषतः शोणितपित्तसंभवम् ॥१८८॥
भावार्थ:-जिसमें कोयेके बाहर व अंदरके भाग शीघ्र ही सूजता है और काला षड़जाता है तो, उसे श्यामलवर्म रोग कहते हैं । यह विशेष कर रक्तपित्त के प्रकोप से उत्पन्न होता है ॥ १८८ ॥
क्लिन्नवर्म लक्षण. यदा रुजं शूनमिहाक्षिवाद्यतः । सदैवमंतः परिपिच्छिलद्रवम् ॥ स्रवेदिह क्लिन्नविशिष्टवर्मकम् । कफास्रगुत्थं प्रवदति तद्विदः ॥ १८९
भावार्थ:-जब आंख [ कोये ] के बाहर पीडा रहित सूजन हो और हमेशा 'अन्दर से पिच्छिल [ चिकना] पानी का स्राव हो, तब उसे अक्षिरोग को जाननेवाले, क्लिन्नवम रोग कहते हैं। यह कफ, रक्त से उत्पन्न होता है ॥ १८९॥
१ इस को अन्य ग्रंथमें वर्त्मकर्दम नामसे कहते हैं।
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