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(१३२.)
कल्याणकारके
क्रोष्टुकीर्ष लक्षण। स्थिरप्रवलवेदनासहितशोफमत्यायतं । करोति निजजानुनि प्रथिततीव्रसत्कोष्टक- ॥ शिरःप्रतिममित्यनकविधवातरक्तामया ।
यथार्थकृतनामकाः प्रतिपदं मया चोदिताः ॥ २४ ॥ भावार्थ:---इसी वातरक्तके विकारसे जानुवोमें जो अत्यंत बंदनासे युक्त अत्यंत आयत सूजन उत्पन्न होती है, यह कोष्टक ( गीदड ) के मस्तकके समान होती है । इसलिये उसे कोष्टकशीर्ष नामका रोग कहते हैं। इसी प्रकार उक्तक्रमसे वातरक्तके विकारसे अपने २ नामके समान पादमें अनेक रोग होते हैं ॥ २४ ॥
वातरक्त असाध्य लक्षण । स्फुटं स्फुटति भिन्नसामृतरसं तथा जानुतस्तदेतदिह वातशोणितमसाध्यमुक्त जिनैः ॥ यदंतदिह वत्सराननुगतं च तद्याप्यमि- ।
त्यथोत्तरमिह क्रियां प्रकटयामि सद्भपजैः ॥ २५ ॥ भावार्थ:--यह अच्छीताह फूटकर जिससमय उस से व घुटने से रक्त रसका स्राव होने लगे, उस वातरक्तको असाध्य समझना चाहिये ! एक वर्षसे पहिले साध्य है, उसके बाद याप्य होजाता है । अब हम वातरोगोंकी चिकित्सा का वर्णन श्रेष्ठऔषधियों के साथ २ करेंगे ॥ २५ ॥
वातरोगचिकित्सावर्णनकी प्रतिज्ञा । त एव तनुभृगणस्य सुखसंपदां नाशकाः । स्फुरद्विषमनिष्टुराशनिविषोपमा व्याधयः ॥ महापलयवातोपमशरीरवातोद्भवा ।
मया निगदितास्तवस्तु विधिरुच्यते तद्गतः ॥२६॥ भावार्थ:--- शरीर में उत्पन्न होने वाले वह बाला रोग प्राणियोंके सुख संपत्ति योंको नाश करनेवाले हैं । भयंकर बिजली व विषके समान हैं, इतना ही नहीं, महाप्रलय कालक प्रचण्ड मारुत के समान है । इसलिये उनका प्रतीकार शास्त्रोक्तक्रमसे यहां कहाजाता है ॥ २६ ॥
गोदाटके समकके समाप.
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