________________
वातरोगाधिकारः ।
आमाशयगतवातरोगचिकित्सा ।
अथ प्रकुपितेऽनिले सति निजामसंज्ञाशये । प्लुतं सलवणोष्णतोयसहितं हितं पाययेत् ॥ ससधैव सुखोष्णतलपारीदिग्धगात्रं नरं । कुधान्य सिकेतादि सोष्णशयने तदा स्वेदयेत् ॥ २७ ॥
भावार्थ:: - - आमाशय में वात प्रकुपित होनेपर, ( उसको जीतने के लिये )
को, सबसे पहिले सेवा -
मन कराना चाहिये, उसकी विधि इस प्रकार है । उस रोगी नमक मिला हुआ, सुखोष्ण तेल से मालिश करा कर ( इस विधिसे, स्नेहेन कराकर ) कुधान्य, बालु आदिसे व उष्ण ( कम्बल आदि ) शयन में सुलाकर स्वेदन करें । तत्पश्चात् वमन करानेकेलिये, गरम पानी में सेंधा नमक भिगोकर पिलाना चाहिये । ॥ २७ ॥
स्नेहपान विधि |
त्रिराजमिह पाययेन्मृदुतरोदरं पित्तत- । स्तथैव कफतोपि मध्यममिव पंचान्हिकम् || स्ववातकृतनिष्ठुरोरुख र कोष्ठमप्यादरा- ।
हिनान्यपिच सप्त सर्वविधिषु क्रमोऽयं स्मृतः ॥ २८ ॥
भावार्थ:- वृत तैल आदि किसी स्निग्ध पदार्थ को सेवन कराकर, शरीर को चिकना बना देना यही स्नेहन है। इसकी विधि इस प्रकार है । शरीर में पित्तकी अधिकतासे मृदुकोष्ट, कफकी अधिकतासे मध्यमकोष्ठ, और वाताधिक्यसे खरकोट, इस प्रकार कोष्ट तीन प्रकारसे विभक्त है । मृदुकोष्ट के लिये तीन दिन, मध्यमकोष्ठ के लिए पांच दिन व arth लिए सात दिनतक स्नेहपदार्थ [ घृत ] पिलाना चाहिये [ इस क्रमसे शरीर अञ्छतिरह स्निग्ध होता है ] स्नेहन क्रियामें सर्वत्र यही विधि है ॥ २८ ॥
Jain Education International
( १३३ )
स्नेहपान के गुण ।
विशेषनिशिताग्नयोऽधिकबलाः सुबर्णोज्वलाः । स्थिराभिवधातवः प्रतिदिनं विशुद्धाशयाः ॥ दृढेंद्रियशतायुषः स्थिरवयस्सुरूपास्सदा ।
भवंति भुवि संततं घृतमिदं पिबंतो नराः ॥ २९ ॥
१ वमन विरेचन आदि प्रत्येक पंचक्रमों को करने के पहिले स्नेहन, और स्वेदन किया करनी चाहिये ऐसा आयुर्वेद शास्त्र का नियम है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org