________________
(२१०)
कल्याणकारके
भावा:-त्रिदोषज आदि कुष्टोंके माध्यासाध्य विषयको अच्छी तरह जानकर सिगमोक्षण करना चाहिये । तदनंतर निम्नलिखित योगोंका प्रयोग करना चाहिये। जमालगोटा, बडः जमाल गोटा, त्रिवि, हलदी, कूट, वचा, कुटकी पाठा, भिलावा, बावुचीका बीज, नीनकी मिगनी, व गूदा, तिल, नागरमोथा, हरड, बहेडा, आंवला, वायु विडंग, नीलीका मूल, भंगरा, पुनर्नव इन सबको समान भागमें लेकर सुखाना चाहिय फिर चूर्ण करना चाहिये । तदनंतर नीम, असनवृक्ष, पृश्नपणी, अमलनास इनकी छालके कषायसे भावना देनी चाहिये । फिर पुनः पुनः ब्राह्मी रससे बना देकर बेरके प्रमाणसे लेकर बहडेके प्रमाण ( एक तोला ) पर्यंत प्रमाणसे उसे खाना चाहिये । जिससे सर्व कुष्ट, प्रमेह, उदर, बवासीर, भगंदर, दुष्ट नाडीत्रण, ग्रंथि, मजन आदि अनेक रोग दूर होते हैं ।। ८६ ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९० ॥
निवास्थिसारादि चूर्ण । निवास्थिसारं सविडंगचूर्ण । भल्लातकास्थिरजनीद्वयसंप्रयुक्तम् ॥ निम्बास्थितैलेन समन्वितं त- क्षुण्णं निहंति सकलामपि कुष्ठ नातिम् ॥९१३
भावार्थ:--नीमके बीज का गूढा, वायुविडंग, भिलावेका बीज, हलदी, दारु हलदी इनको कपडा छान चूर्ण करके नीमके बीजके तेलके साथ मिलाकर उपयोग करनेसे समात जाति कुष्ठ नाश होते हैं ॥ ११ ॥
पुन्नागवीजादिलेप | अत्युच्छ्रितान्यत्र हि मण्डलानि । शस्त्रैस्सफेननिशितेष्ठिकया विधृष्य । पुन्नागवीजैः सह संधवा- स्सौवर्चलः कुटजकल्कयुतैः प्रलिपेत् ॥१.२।
भावार्थः -- जिस कुष्ठमें अत्यधिक उटे हुए मण्डष्ट ( चकने ) हों तो उनको शस्त्रसे, समुद्रफेनसे अथवा तीक्ष्ण ईंठसे घिसकर फिर उसको पकागवृक्ष के बीज, सेंधानमक, अकौवा, · कालानमक, कुरैया की छाल इनके करकको उपन करना चाहिये ॥ ९२ ॥
पलाशक्षारलप। पालाशभस्मन्युदकाश्रिते तत् । सम्यक्परिनुतमिहापि पुनर्विपकम् ॥ तस्मिन् हरिद्रां गृहधूमकुष्ट- । सौवर्चलत्रिकटुकान प्रतिशष्य लिंपन ॥९३॥
भाव र्थः- पलाश [ ढाक ] भस्म को पानीमें घोलकर अच्छीतरह छानना चाहिये । फिर उसको पकाकर उसमें हलदी, घरके धुंआ, कूट, क.लानमक, त्रिकटुक इनको डालें व लेपन करें जिससे कुष्ठ रोग दूर होजाता है ॥ ९३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org