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(३४.)
कल्याणकारके
वाताभिष्यंदनाशक अंजन. समातुलुंगाम्लकसैंधवं घृतं । सतैलमेतद्वनितापयो युतम् ॥ २३ सनीलिक धृष्टमिदं सदंजनं । कटुत्रिकै पितमंजयेत्सदा ॥ १३५ ॥
भावार्थः- विजोरा निंबूका रस, सैंधालाण, तिल का तेल, स्त्री का दूध, नौली, इन को एकत्रा कर के ( ताम्रपान या पत्थर के पात्रा में ) अच्छी तरह पीसें और इस श्रेष्ठ अंजन को सेठ, मिरच, पीपल से धूप देकर हमेशा अजन करना चाहिये ॥ १३५॥
वाताभिष्यंदाचीकल्सोपसंहार. बिलोचनो दूतममत्कृतामयान् । प्रसाधयेत्प्रोक्तविधानताऽखिलान् । यथोक्तवातामयसच्चिकित्सित-। प्रणीतमार्गादथवापि यत्नतः॥१३६ ॥
भावार्थ:-इस प्रकार वात से उत्पन्न संपूर्ण नेत्र रोगोंको पूर्वोक्त कथन के अनुसार चिकित्सा करके, ठीक करना चाहिये । अथवा वात रोगोंके लिये जो चिकित्सा पहिले बताई गई है उस क्रम से यत्नपूर्वक चिकित्सा करे ॥ १३६ ॥
पैत्तिकाभिष्यंद लक्षण. विदाहपाकमवलोमताधिक-। प्रबाष्पधमायनसोष्णवारिता ॥ तृषा घुभुक्षाननपीतभावता । भवत्याभिष्यंदगणे तु पैत्तिके ॥ १३७ ॥
भावार्थ:---आखोंमे दाह व अधिक उप्णता, पानी गिरना, धूवांसा उठना, अश्रुजल उष्ण रहना, अधिक भोजन की इच्छा होना, मुख पीला पडजाना आदि लक्षण पित्तकृत अभिष्यंद रोगमें पाये जाते हैं ॥ १३७ ॥
पैत्तिकाभिध्यचिकित्सा. घृतं प्रपाय प्रथम मृत्कृतं । विशाधयेत्तत्र शिरां विमोक्षयेत् ॥ । व्यहारच दुग्धोद्भव सर्पिषा शिरो-विरेचयेत्तर्पणमाशु योजयेत् ॥१३८॥
भावार्थ:--पित्ताभिष्यंदसे पीडित रोगीको प्रथम घृत पिलाकर (धृतसे स्नेहन कर ) शरीरको मृदु करके विरेचन देना चाहिये और सिरामोक्षण ( फस्त खोलना ) भी करना चाहिये । इसके तीन दिनके बाद दूधसे उत्पन्न ( दहीसे उत्पन्न नहीं ) घीसे शिरोविरेचन और तर्पणको शीघ्र प्रयोग करना चाहिये ॥ १३८ ॥
१ सयपृष्टमिष्टतः इति पाठांतर । २ किसीका ऐसा मत है कि रोगकी उत्पसिसे सीन दिनके बाद शिरोविरेचन आदि करना चाहिये ।
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