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क्षुद्ररीगाधिकारः
(३३९) वाताभिष्यंद चिकित्सा. पुराणसर्पिः प्रविलिप्तमक्षित- । द्विशेषवातघ्नगणः श्रुतांबुना : सुखोष्णसंस्वेदनमाशु कारयेत् । प्रलेपयेत्तैरहिमैस्स सैंधवैः ॥ १३२ ॥
भावार्थ:--उस ( वाताभिप्यंद से पीडित आंख ) पर पुराने घीका लेपन करके वातनाशक गणोक्त औषधियोंसे पक अन्य उष्ण जलसे उसको अच्छी तरहसे स्वदन कराना चाहिये । उन्ही वातनाशक औषधियों में सेंधा नमक मिलाकर कुछ गरम करके उसपर लेपन करना चाहिये ॥ १३२ ॥
वाताभिप्यद में विरेचन आदि प्रयोग. । ततश्च सुस्निग्धतनुं विरेचयत् । सिराविमोक्षरपि बस्तिकर्मणा ।।
जयेत्सनस्यैः पुटपाकतर्पणः । सुधूमनिस्वेदनपत्रबंधनैः ॥ १३३ ॥
भावार्थ:-इसके बाद रोगीको स्नेहन करके विरेचन कराना चाहिये । सिरा विमोक्ष व बस्तिकर्म भी करना चाहिये । एवं नस्यप्रयोग, पाक तैल तर्पण, धूमन, स्वेदन व पत्रबंधन आदि विधि करनी चाहिये ॥ १३३ ॥
विशेषः-तर्पण-जो नेत्रोंकी तृप्ति करता है उसे तर्पण कहते हैं। अर्थात् आंखोंके हितकारी औषधियोंके रस, घी आदिको ( रोगीको चित सुलाकर-) आंखों में डालकर कुछ देर तक धारण किया जाता है इसे तर्पण कहा है।
पुटपाक-नेत्र रोगोंको हितकारी औषधियोंको पीसकर गोला बनावे । पश्चात् आम इत्यादि पत्तियोंको उस पर लपेट कर उसपर मिट्टीका लेप करे। इसके बाद कण्डोंकी अग्निसे उस गोले को ( पुट पाक की विधि के अनुसार ) जलावें । फिर उसकी मिट्टी व पत्तोंको दूर करके उस गोले को निचोडके रस निकाल ले और उसको सर्पण की विधि के अनुसार नेत्रोंमे डालें । इसे पुटपाक कहते हैं।
पथ्य भोजनपान.. .. फलाम्लसंभारसुसंस्कृतैः खलैः । धृतैःश्रुतक्षारयुक्तैश्च भाजयेत् ॥ पिबेत्स भुक्तोपरि सौरभं घृतं । मुखोष्णमल्प तृषिती जलांजलिम् १३४
भावार्थ:---फल, आम्लसे युक्त, खट्टा फल, धनिया जीरा इत्यादिसे अच्छी तरह संस्कृत खल, तथा घीसे पका हुआ व दूधसे युक्त भोजन कराना चाहिये । भोजन करमेके ऊपर सुगंध घी [सौरभधृत], पिलाना चाहिये। यदि प्यास लगे तो थोडासा गरम जल पिलाना चाहिये ॥ १३४ ॥
१ सुरभिगायके दूधसे उत्पन्न घृत.
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