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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । पित्ताभिष्यंदमें लेप व रसक्रिया. मृणालकल्हारकपद्मकोत्पल - । प्रधान दुग्यांघ्रिपश्रृंगिचंदनैः ॥ पयोनुपिष्टैः घृतशर्करायुतैः । प्रलेपयेत्तैर्वितरेद्रसक्रियाम् ।। १३९ ।। (३४१) भावार्थ:- कमलनाल, श्वेतकमल (कुमुदिनी ) पद्मकाष्ठ व नीलकमल, प्रवान पंच क्षीरीवृक्ष ( वड, मूलर, पीपल, पारिसपीपल, पावर ) शक्कर काकडासिंगी मिलाकर उसमें प्रलेपन करना एवं उन्हीं औषधियोंकी रकियाका प्रयोग करना हितकर है || अंजन. सुचूर्णितं शंखमिह स्तनांबुना । विवयेदायसभाजनद्वये || मुहुर्मुहुशर्करा सुषितं । सदजयेत्पित्तकृतामयाक्षिणि ॥ १४० ॥ भावार्थ:- शंखको अच्छी तरह चूर्णकर फिर उसे स्तन दूध के साथ लोहके दो बरतन में डालकर खूब रगडना चाहिये ( अर्थात् लोह के बरतन में डालकर लोहे की मूसलीसे रगडे ) उसे बार २ शक्करसे धूप देकर पित्तजन्य अभिष्यंद रोग से पीडित आंखो में हमेशा अंजन करें ॥ १४० ॥ अक्षदाह चिकित्सा, सयष्टिककं पय एव माहिपं । विगलितं शीतल मिंदुसंयुतम् ॥ निषेवयेदक्षिविदाहवाधिते । घृतेन पौंड्रेक्षुरसेन वा पुनः ॥ १४१ ॥ भावार्थ:- -आंखें दाहसे पीडित होजाय तो मुलेठी के कल्क में भैंसका दूब मिलाकर गालन करें । तदनंतर उसमें कपूर मिलाकर सेवन करें अथवा इसी कल्क को घी, या गन्ने के रसके साथ सेवन करें ॥ १४१ ॥ पित्ताभिष्य में पथ्यभोजन. पिवेद्यवागूं पयसा मुसाधितां । घृतप्लुतां शर्करया समन्वितां ।। समुद्रयूषं घृतमिश्रपायसं । समुद्रयूषोदनमेव वाशनम् ॥१४२॥ भावार्थ:-- पित्ताभिष्यंद से पीडित रोगीको दूधसे पकाया हुआ, घीसे तर, शक्कर से युक्त यवागूको पिलाना चाहिये । एवं मुद्गयूष या घृतमिश्रित पायस ( खीर ) अथवा मुद्द्रयूप के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये ॥ १४२ ॥ १ क्वाथ इत्यादियों को फिर पकाकर, गाढा ( घन ) किया जाता है इसे रसक्रिया कहते हैं ग्रंथांतर में कहा भी है | काथादीनां पुनः पाकात् घनभावे रसक्रिया | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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