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________________ (३४२) कल्याणकारके पित्ताभिष्यंद में पथ्यशाक व जल. कपायतितै मधुरैस्सुशीतलैः । विपक शाकैरिह भोजयेन्नरम् ॥ पियेज्जलं चंदनगंधबंधुरं । हितं मितं पुष्पधनाधिवासितम् ॥१४३।। . भावार्थः -कपाय, कडुआ, मधुररस व शीतल वीर्ययुक्त पकाया हुआ शाक उस रोगीको खिलाये । यदि उसे प्यास लगे तो चंदन के गंध से मनोहर व सुगंध पुष्प, कपूर से सुवासिक हितकर जलको मितसे पिलाना चाहिये ॥ १४३ ॥ पिरजसवाक्षिरोग चिकित्सा. कियंत एवाक्षिगतामया नृणां । प्रतीतपित्तप्रभवा विदाहिनः॥ ततस्तु तान्शीतलसर्वकर्मणा । प्रसाधयेत्पित्तचिकित्सितेन वा ॥ १४४॥ ... भावार्थः- मनुष्यों की आंखमें पित्त से उत्पन्न अतएव अत्यंत दाहसे युक्त "कितने ही नेत्ररोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन सब को, शीतल चिकित्साद्वारा अथवा १ पैत्तिक रोगोक्त चिकित्साक्रम द्वारा जीतना चाहिये ।। १४४ ॥ ___ रक्तजाभियद लक्षण. सलोहित वक्त्रमथाक्षिलोहितं । प्रतानराजीपरिवेष्टितं यथा ॥ संपित्तलिंगान्यपि यत्र लोहित । भवेदभिष्यद इति प्रकीर्तितः ॥१४५|| भावार्य:-जिस नेत्ररोग में मुख लाल हो जाता है, आंखें भी लाल हो जाती है, एवं लाल रेखाओं के समूह से युक्त होती हैं, जिसमें पित्तामिष्यद के लक्षण भी "प्रकट हो जाते हैं, उसे रक्तजन्य अभिष्द रोग जानना चाहिये ॥ १४५॥ रक्तजाभिष्यंद चिकित्सा। तमाशु पित्तक्रियया प्रसाधये । दमृग्विमोक्षरपि शोधनादिभिः॥ सदैव पित्तास्रसमुद्भवान्गदा- । नशेषशीतक्रियया समाचरेत् ॥१४६।। भावार्थ:---उसे शीघ्र पित्तहर औषधियोंसे चिकित्सा करनी चाहिये । एवं रक्त . मोक्षपा, शोधनादि ( वमन विरेचन आदि ) विधि भी करनी चाहिये । सदा पित्त व ( रक्त विकारसे उत्पन्न रोगोंको समस्त शीतक्रियावोंते उपचार करना चाहिये ॥१४६॥ ... फजाभिष्यंद लक्षण. 1:- प्रदेहशीतातिगुरुत्वशोफता । सुतीवकण्डूराहिमाभिकांक्षणम् ॥ सपिच्छिलास्रावसमुद्भवः कफा-द्भवन्त्यभिष्यंदविकारनामनि ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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