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कल्याणकारक
भावार्थ:- कई महारोग अपने स्वभाव से ही वातादि दोषोंसे शीघ्र उत्पन्न होते हैं और बहुत से रोग. उन्ही दोषोंसे देरी से उत्पन्न होते हैं। ऐसा होना उनका स्वभाव है। जैसे कि जमीन में बोये गये बीजोंको पानी, योग्यक्षेत्रा आदि सम्पूर्ण गुणयुक्त सामग्रियोंके मिलने पर भी वहुत से तो शीघ्र उगते हैं और बहुत से तो देर में । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में भी रोग चिर व [देर ] अचिर शीघ्र] भेद से उत्पन्न होते हैं ॥ ११५ ॥
बहुविधकृतव्यापारात्मोरुकवशान्महु- । मुंहुरिह महादोषः रोगा भवंत्यचिराचिरात् ।। सति जलनिधावप्युत्तंगास्तंरगणास्स्वयं ।
पृथक पृथगुत्पद्यते कदाचिदनेकशः ॥ ११६ ।। भावार्थ:--शरीरमें रोगोत्पात्तिके कारण भूत प्रकुपितदोष मौजूद होनेपर भी कोई रोग देर से कोई शीघ्र क्यों उत्पन्न होते हैं । इस के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि पूर्व में किये गये नानाप्रकार के व्यापारों से अर्जित कर्म के वशीभूत होकर महान् दोषों से बहुत से रोग शीघ्र उत्पन्न होते हैं बहुत से देर से । जैसे कि समुद्रमें [तरंग के कारणभूत ] अगाध जलराशि के रहने पर भी कभी २ बडे २ तरंग एक २ कर के [देर २ से ] आते हैं। कभी तो अनेक एक साथ (शीघ्र २) आते हैं ॥ ११६ ॥
अपस्मार चिकित्सा. इह कथितसमस्तोन्मादभैषज्यवर्गः । प्रशमयतु सदापस्माररोग विधिज्ञः ॥ सरसमधुकसारो दृष्टनस्यम्समूत्रैः ।
प्रशमनविधियुक्तात्यंततीवौषधैश्च ॥ ११७ ॥ भावार्थ:-चिकित्सा में कुशल वैद्य उन्माद रोग में जो औषधिवर्ग बतलाये गये हैं उन से इस अपस्मार रोगकी चिकित्सा कर उपशमन करें। सफेद निशोथ, मुलैठी, वज्रखार इनको गोमूत्र के साथ पीसकर नस्य देवें [ सुंघावें ] एवं अपस्मार रोग को दूर करनेवाले तीव्र औषधियों के विधि प्रकार नस्य आदि में प्रयोग से चिकित्सा करें ॥ ११७॥
नस्यांजन आदि. पुराणघृतमस्य नस्यनयनांजनालेपन-। । विधेयमधिकोन्मदादियमानसव्याधिषु ।।
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