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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः निरंतरमिहातितीव्रकटु भेषजैश्चूर्णितै- । स्सदा क्षवथुमत्र सूत्रविधिना समुत्पादयेत् ॥ ११८ ॥ भावार्थ:-- अपस्माररोग से पीडित मनुष्य को आंख में घी का अंजन और उसीका लेप भी करें ! बढा हुआ उन्माद अपस्मार आदि मानसिकरोगों में हमेशा अत्यंत तीक्ष्ण, कटु ('चरंपरा ) औषधियों के चूर्ण से, शास्त्रोक्तविधि अनुसार छींक पैदा करना चाहिये ॥ ११८ ॥ भाडयद्यरिष्ट. भाडकषाययुतमायसचूर्णभाग - । मिक्षोर्विकारकृत सन्मधुरं सुगंधि || कुंभे निधाय निहितं बहुधान्यमध्ये | Sपस्मारमाशु शमयत्यसकृन्निपीतम् ॥ ११९ ॥ Jain Education International ( ४ ४ १ ) भावार्थ:- भारंगी के कषाय में लोहभस्म व गुड मिलाकर एक घडे में भर देवें । फिर उसे धान्यो की राशि में एक महीने तक रख कर निकाल लेवें । उसे कपूर आदि से सुगंधित करें । इस सुगंधित व मीठा भार्यादि अरिष्ट को वार २ पीयें तो अपस्मार रोग शीघ्र ही शमन होता है ॥ ११९ ॥ अंतिम कथन | इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृत तरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरती । निस्सृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १२० ॥ भावार्थ:-- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इहलोक आर परलोक के लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुख से उत्पन्न शास्त्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १२४ ॥ ५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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