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कल्याणकारक
होता है इसे अर्जुन रोग कहते हैं । और उसी में सफेद उठा हुआ वेदना रहित पिठी के समान, बिंदु होता है उसे पिष्टक रोग कहा है ॥२०२ ॥
शिराजाल व शिराजपिडिका लक्षण. महत्सरक्तं कठिनं सिराततं । शिरादिजालं भवतीह शुक्लजम् ॥ शिरावृता या पिटका शिराश्रिता । सिता सिरोक्तान् सनरान् सिरोद्भवान् २०३
भावार्थ:---शुक्ल मण्डल में महान अत्यंत लाल, कटिन जालसा फैला हुआ शिरासमूह जो होते हैं उसे शिराजाल रोग कहते हैं। उस शुक्लमण्डल में कृष्ण मण्डलके समीप रहने वाली शिराओंसे आच्छादित जो सफेद पुन्सी होती है उस को शिसजपिटका कहते हैं ॥ २०३ ॥
मृदुस्वकोशप्रतिमोरुविविका- फलीपमो वा निजशुक्लभागजः ॥ भवेदलासग्रथितो दशैकजः । अतः परं कृष्णगतामयान् ब्रुवे ॥२०४॥
भावार्थ:---शुक्ल मण्डल में मृदु फूल की कली के समान अथवा बिंबीफल [कुंदरू ] के समान, ऊंची गांठसा हो उसे बलासप्रथित कहते हैं । इस प्रकार ग्यारह प्रकार के शुक्लगत रोगों के वर्णन कर चुके हैं। अब आगे . कृष्णमण्डलगत रोगों के वर्णन करेंगे । २०४ ॥
अथ कृष्णमण्डलगतरोगाधिकारः ।
अत्रण, व सव्रणशुक्ललक्षण. अपत्रणं यच्च सितं समं तनु । मुसाध्यशुक्लं नयनस्य कृष्णजम् । तदेव मग्नं परितस्ववद्वं । न साध्यमेतद्विदितं तु सत्रणम् ॥ २०५॥
भावार्थ:-- आँख के कृष्णमण्डल में जो सफेद बराबर (नीचा व ऊंचे से रहित ) पतला शुक्ल फूल होता है, उसे अपत्रण शुक्ल अथवा अव्रण शुक्ल कहते हैं । यह साध्य होता है । वही [ अत्रणशुक्ल ] यदि नीच को गडा हुआ हो चारों तरफ से द्रवस्राव होता हो इसे सत्रण शुक्ल कहते हैं । यह असाध्य होता है ॥ २०५॥
अक्षिपाकात्यय लक्षण. यदत्र दोषेण सितेन सर्वतो- । सितं तु संछाद्यत एव मण्डलम् ।। तमक्षिपाकात्ययमक्षयामयं । त्रिदोषजं दोपविशेषवित्यजेत् ॥ २०६॥ भावार्थ:---जो काली पुतली दोषोंसे उत्पन्न, सफेदी से सभी तरफसे आच्छा.
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