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. क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२९५) अंतर्विद्रधिनाशक योग. वरुणमधुकशिवाख्याततत्कार्यमाघ । प्रशमयति महांतर्विद्रधिं सर्वदेव ।। सकलमलकलंक शोधयेदत्यभीक्ष्णं ॥
शुकमुखसितमल पाययदुष्णतोयः ॥ ३३ ॥ भावार्थ:--वरणा, ज्येष्ठमधु, सेजिन इन औषधियोंके प्रयोगसे अंतर्विद्रधि उपशमनको प्राप्त होता है । शुकमुख ( वृक्षभेदे ) धबवृक्ष इनके जड को गरम पानीमें पीसकर पिलावें तो हमेशा, विद्रधिके इलकलंककी शुद्धि होती है ॥ ३३ ॥
विद्रधि रोगीको पथ्याहार । व्रणगतविधिनाप्याहारमुद्यत्पुराण- । प्रवरविशदशालीनामिहानं सुपक्कं ॥ वितरतु घृतयुक्तं शुष्कशाकोष्णतोयैः ।
तदुचितमपि पेयं वा विलेप्यं सयूषम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-त्रणसे पीडित रोगियों को जो हित आहार बतलाये हैं, उन को इस में [ विद्रधि ] भी देना चाहिये । एवं इस रोगमें पुर'ने धान्योंके अच्छी तरह पक्क हुए अन्नको खिलाना चाहिये । उसके साथ घी और शुष्क शाक एवं पनिके लिये उष्णजल देना चाहिये । इसके अलावा उसको योग्य अहित नहीं करनेवाले पेय विलेपी या यूषको भी देना चाहिये ॥ ३४ ॥
अथ क्षुद्ररोगाधिकारः।
क्षुद्ररोगवर्णनप्रतिज्ञा। पुनरपि बहुभेदान् क्षुद्ररोगाभिधानान् । प्रकटयितुमिहेच्छन् प्रारभत प्रयत्नात् ॥ विहितविविधदोपभोक्तसल्लक्षणैस्त-।।
द्वितकरवरभैषज्यादिसंक्षेपमार्गः ॥ ३५ ॥ ..; भावार्थः-पहिले क्षुद्र रोगोंका वर्णन किया गया है । फिर भी यहांपर अनेक प्रकार के क्षुद्ररोगोंको कहनेकी इच्छासे प्रयत्न के साथ उक्त अनेक दोषों के लक्षण एवं उन रोगों के लिये हितकर औषिधियों का निरूपण करते हुए संक्षपके साथ उन (क्षुद्र रोगों ) के कथनका प्रारंभ करेंगे॥३५॥ .
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