________________
(२९६)
कल्याणकारके
भकथित रांगों की परीक्षा। न भवति खलु रोगो दोषजालैर्विना यत् । तदकथितमपि प्राधान्यतस्तद्गुणानाम् ॥ उपशमनविधानस्साधयेत्साध्यमेवं ।
पुनरपि कथनं स्यात्पिष्टसंपेषणार्थम् ॥ ३६ ॥ भावार्थ:--यह निश्चित है कि वात, पित्त कफके विना रोग उत्पन्न होता नहीं। इसलिये जिन रोगोंका या रोगके भेदोंका कथन नहीं किया है ऐसे रोगोंमें भी वात पित्तादिक विकारोके मुख्य ( अर्थात् यह व्याधि वातज है ? पित्तज है ? या कफज ! इत्यादि बातोंकी तत्तदोषोंके लक्षणोंसे निश्चित कर ) और गौणत्वका विवार कर योग्य औषधियोंके प्रयोगसे उनकी चिकित्सा करनी चाहिए। पुनः उसका कथन करना पिष्टपेषण दोषसे दूषित होता है ॥ ३६ ॥
अजगल्लीलक्षण । परिणतफलरूपा तीक्ष्णपत्रास्य साक्षात् । कफपवनकृतयं तोयपूर्णाल्परक् च ॥ जलमरुदुपयोगाब्दुब्दुदस्येव जन्म ।
त्वचि भवति शिशूनां नामतस्साजगल्ली ॥ ३७ ॥. - भवार्थ:-जिस प्रकार जल और वातके संयोगसे बुदबुद की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार कफ और वातके विकारसे बालकोंकी त्वचा पानीसे भरे हुए और कुछ वेदना सहित पिटक होते हैं, उन्हें अजगली कहते हैं । उनका आकार पके हुए तुंबुरु, फलके समान होता है ॥ ३७॥
अजगल्ली चिकित्सा. अभिनवजनितां तां ग्राहयेद्वा जलौका-। मुपगतपरिपाकां संविदार्याशु धीमान् ॥ व्रणविहितविधानं योजयेद्योजनीयम् ।
कफपवननिद्रव्यवर्गप्रयोगः ॥ ३८ ॥ ... भावार्थ:-नवीन उत्पन्न अजगल्ली हो, जो कि पकी नहीं हो, जौंक लगवाकर दुष्ट रक्त मोक्षण करके उपशम करना चाहिए। यदि वह पक गई हो तो उसे बुद्धिमान वैद्यको उचित है कि शीघ्र विदारण करें और कफ व वात हर औषधियोंके प्रयोग के साथ २ व्रण चिकित्सा में कह गये शोधन रोपण आदिको करें ॥ ३८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org