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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२९७)
अलजी, यव, विवृत लक्षण. अतिकठिनतरां मत्वालजी श्लेष्मवातैः । पिशितगतविकारामल्पपूयामवक्त्रां । यवमिति यवरूपं तद्वदंतर्विशालं ॥
विवृतमपि च नाम्ना मण्डलं पित्तजातं ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-श्लेष्म वातके प्रकोप से मांस के आश्रित अल्प पू (पीप) सहित, मुखरहित अत्यंत कठिन पिटक होते हैं उन्हे अलजी कहते हैं। यव के आकार में रहनेवाले [ मांसके आश्रित कठिन ] पिटकों को यव ( यवप्रख्य ) कहते हैं । उसी प्रकार पित्तके विकारसे अंदर से विशाल, खुले [ फटा ] मुखबाला जो मंडल (चकता) होता है उसे विवृत कहते हैं ॥ ३९ ॥
कच्छपिका वल्मीक लक्षण. . कफपवनविकारात्पंचषटुंथिरूपे । परिवृतमतिमध्यं कच्छपाख्यं स्वनाम्ना ॥ तलहदयगले संयूर्धजतृप्रदेशे ।
कफयुतबहुपित्तोभदूतवल्मीकरोगम् ॥ ४० ॥ भावार्थ:--कफ और वात के प्रकोप से पांच अथवा छह ग्रंथि के रूप में जिन का मध्यभाग खुला नहीं है [ कछुवे के पीठके समान ऊंचा उठा हुआ है ] ऐसे, जो पिटक होते हैं उन्हे कच्छपपिटका [ कच्छपिका ] कहते हैं । हस्त व पादतल, हृदय, गला, सर्वसंधि, एवं जत्रुकास्थि [ हंसली की हड्डी ] से ऊपर के प्रदेश में कफयुक्त अधिक पित्त के प्रकोप से सर्पके वामी के समान प्रथि [ गांठ] होती है उसे वल्मीकरोग कहते हैं ॥ ४ ॥
इंद्रविद्धा, गर्दभिका, लक्षण. परिवृतपिटकाभ्यां पद्मसत्कणिकाभ्यां । कुपितपवनविद्धामिंद्रविद्धां विदित्वा ।। पवनरुधिरपित्तात्तद्वदुत्पन्नरूप- ।
मतिकठिनसरक्तं मंडलं गर्दभाख्यम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ:--वातके प्रको से कमलके कर्णिकाके समान, बीचमें एक पिडिका हो उसके चारों तरफ गोल छोटी २ फुसियों हों उसे इंद्रविद्धा कहते हैं। बात पित्त व
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