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कल्याणकारके
सुवर्चिकादिचूर्ण। सुवर्धिकासैंधवहिंगुनीरकैः । करंजयुग्मः श्रवणाहपः ॥ . .. कटुशिकैश्वर्णकृतैः पयः पिवेत् । करोति मुष्कं करिमुष्कसभिभम् ॥८९॥
भावार्थ:-सर्जाखार, . सेंधालोण, हींग, जीरा, छोटी बडी करंजा, श्रवणी, त्रिकटु इन सब औषधियोंको चूर्णकर दूध के साथ पाये तो अण्डकोश हाथीके अण्डकोश के समान सुदृढ बनता है ।। ८९ ॥
उपदंशशूकरोग वर्णनप्रतिक्षा। वृषणवृद्धिगणाखिललक्षणं । प्रतिविधानविधि प्रविधायच ॥ तद्ध्वजगतानुदशविशेषितान् । निशितशूकविकारकृतान ब्रुवे ॥ १० ॥
भावार्थ:-- इस प्रकार वृषण वृीका संपूर्ण लक्षण, चिकित्सा आदियो कहकर अब पुरुषलिंग के ऊपर होनेवाले उपदंश और शूक रोगका वर्णन अब आगेक प्रकरणमें करेंगे ।। ९० ॥
__अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधैः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ९१ ।। भावार्थ:--जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ११ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे
क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितो त्रयोदशः परिच्छेदः ।
इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ · के चिकित्साधिकार में वियावाचस्पतीत्युपाविविभूषित वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित
भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक
तेरहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। . .
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