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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२८१) भावार्थ:-मेदोत्पन्न वृद्धि में सीवनी ( लिंगके नीचे से गुदा तक गई हुई रेखा ) को छोडकर अण्डकोश को अतियत्न के साथ विदारण (फोडे ) करें। पक्षात् मेद को शीघ्र ही निकाल कर, क्रमसे शोधन ( शुद्धि ) करें। तथा उष्ण औष. थियों द्वारा बांध देवें ॥८४ ॥ मूत्रजवृद्धिचिकित्सा । समूत्रवृद्धिं दृढबंधबंधितां । विभिद्य सुव्रीहिमुखेन यत्नतः ॥ विगालयेत्सनलिकामुखेन त- । ज्जलोदरमोक्तविधानमार्गतः ।। ८५ ॥ भावार्थ:-मूत्राज अण्डवृद्धिमें, जलोदर में पानी निकालने की जो विधि बतलायी है उसी विधिके अनुसार अण्ड को अच्छी तरह से वेध कर, अति प्रयत्नके साथ ब्रीहिमुख नामके शस्त्रसे भेदन करके,नली लगाकर अण्डसे पानीको बाहर निकालेंग॥८॥ अंत्रवृध्दिचिकित्सा। अथात्रवृद्धौ तदसाध्यतां सदा । निवेद्य यत्नादनिलघ्नमाचरेत् ॥ बलाभिधानं तिल प्रपाययेत् । ससैंधवैरण्ड जतैलमेव वा ॥ ८६ ॥ भावार्थ:-अंत्रावृद्धिके होने पर उसे पहिलेसे असाध्य कहना चाहिये । फिर पातहर औषधियोंका प्रयोग कर बहुत यत्नके साथ चिकित्सा करनी चाहिये । बलातैल अथवा संघालोण मिलाकर एरण्डका तैल उसे पिलाना चाहिये ॥ ८६ ॥ अण्डवृध्दिनलेप। मुखाहकांजीरकरंजलांगली-। खरापमार्गाघ्रिभिरेव कल्कितैः ॥ , प्रदिह्य पत्रैःसह बंधमाचरेत् । प्रवृद्धवृद्धिप्रशमार्थमाचरेत् ॥ ८७॥ . भावार्थ:--सुग्वाह्वा, ( वृद्विनाशक औषधि ) की जड, कंटकयुक्त वृक्ष विशेष, कांजीर, करंज, कलिहारी, चिरचिरा इनके जडका कल्क बनाकर उसे पत्तेपर लेप करके उसको बदिपर बांधना चाहिये । जिससे वह वृद्धि उपशम को प्राप्त होती है ॥ ८७ ॥ ___ अण्डवृदिन्नकल्क। पिवेत्कबेराक्षिफलांघ्रिभिः कृतं । सुकल्कपत्यम्लकतक्रकांजिकैः ॥ मुशिामल त्रिकटुं ससैंधवं । सहाजमोदैः सह चित्रकेण वा ।। ८८ ॥ भावार्थ:--पाडरवृक्ष, मदनवृक्ष [ मनफलका पेड ] इनके जइसे बनाया हुआ कल्क, अम्लक, छाछ वा कांजीके साथ तथा सैंजनका जड, त्रिकटु, सैंधालोण इनके कल्कको अनमोद या चित्रकके बाथ के साथ पीयें ।। ८८ ॥ १ प्रसूति अधिकारोक्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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