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________________ विषरोगाधिकारः । (४९२) AamrARANAPA N मूलादिविषजन्य लक्षण. प्रलपनमोहवेष्टनमतीव च मूलविषाच्छ्सनविज़ंभवेष्टनगुणा अपि पत्रविषात् ॥ जठरगुरुत्वमोहवमनानि च पुष्पविषात् । फलविषतोऽरुचिर्वृषणशाफविदाहयुतम् ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-- यदि मूलविष खाने में आ जाय तो प्रलाप ( बडबडाना ) मूर्छा, व उद्वेष्टेन हो जाता है। पत्रविषके उपयोगसे श्वास, जम्भाई उद्वेष्टन उत्पन्न होता है। पुष्पविषसे पेटमें भारीपन, मूर्छा, वमन हो जाता है । फलविषसे अरुचि, अंडकोष में सूजन व दाह उत्पन्न होता है ॥ ३२ ॥ स्वक्सारनिर्यसनविषजन्यलक्षण. त्वगमलसारनिर्यसनवविषैश्च तथा । शिरसि रुजाननातिपरुषाध्यकफोल्वणता ।। गुरुरसनातिफेनवमनातिविरेकयुतम् । भवति विशेषलक्षणमिहाखिलदुग्धविषे ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-त्वक् ( छाल ) सारनिर्यास [गोंद] विष से शिरोपीडा, मुखकाठिन्य, अंधेपना, कफातिरेक होते हैं । सम्पूर्ण दूधसंबंधी विष से जीभ के भारी होना मुख से अत्यंत फेन का वमन व अत्यंत विरेचन आदि लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ३३ ॥ धातुविषजन्य लक्षण. हृदयविदाहमोहमुख शोषणमा भव- । दधिकृतधातुजेषु निखिलेषु विषेषु नृणां ॥ अथ कथितानि तानि विषमाणि विषाणि । पुरुषमकाल एव सहसा क्षपयंति भृशं ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-----धातुज सर्वविष के उपयोग से मनुष्यों में हृदयदाह, मूर्छा, मुखशोषण होता है । इस प्रकार पूर्वकथित समस्त भयंकरविष प्राणियों को उन के आयुष्यकी पूर्ति हुए विना ही अकाल में नाश करते हैं ॥ ३४ ॥ १ गीले कपडे से शरीर को ढकने जैसे विकार मालूम होना ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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