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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(३३१)
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" भायार्थ:--रक्तके तीन प्रकोप, ज्वर व अतिदाहसे युक्त लाल व मृदु शोथ, तालू में उत्पन्न होता है । इसे अध्रुष रोग कहते हैं। शस्त्रकर्म व प्रतिसारण आदि उपायोंसे उसकी चिकित्सा करें ॥९७ ॥
कच्छपलक्षण व चिकित्सा. स कच्छपः कच्छपवत्कफाद्भवेत् । सतालुशोफो विगतातिवेदनः॥ तमाशु विश्रम्य विशोधयेत्सदा । फलत्रिकट्यूषणतलेंसधैवः ।। ९८ ।।
भावार्थ:-कफके विकारसे तालुपर कछवेके समान (आकारवाला ) शोथकी उत्पत्ति होती है। जिसमें अत्यधिक वेदना नहीं होती है ( अल्प वेदना होती है । इसे कच्छप रोग कहते हैं। उसे शीघ्र विश्रांति देकर हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मिरच, पीपल, तैल व सेंधालवणके द्वारा शोधन करना चाहिये ॥९८!!
रक्तावद लक्षण व मांससंघात लक्षण. स्वतालुमध्ये रुधिराव॒दं भवेत् । प्रतीत रक्तांबुजसप्रभं महत् ॥ तथैव दुष्टं पिशितं चयं गतं । स मांससंघातगलो विवेदनः ॥ ९९ ॥
भावार्थ:-रक्तके प्रकोपसे तालके मध्यभाग में प्रसिद्ध लाल कमल के कार्णकाके समान जो महान शोथ होता है इसे रक्तार्बुद रोग कहते हैं । ( जिसका लक्षण पूर्वोक्त रक्तार्बुदके समान होता है ) उसी प्रकार तालुके मध्य भागमें ( कफसे ) मांस दूषित होकर इक्कठा होता है व वेदनारहित है, इसे मांससंघात कहते हैं ।। ९९ ॥
तालुपुष्ण(प्प)ट लक्षण. अरुक् स्थिरः कोलफलोपमाकृति- । लासमेदः प्रभवोऽल्पवेदनः ॥ सतालुजः पुष्पटकस्तमामयं । विदार्य योगैः प्रतिसारयेत् भृशम् ॥१०॥
भावार्थ:-कफ व भेदके विकारसे तापें पीडारहित अथवा अल्पवेदना युक्त स्थिर, बेरके समान जो शोथ उत्पन्न होता है इसे तालुपुष्पक ( तालुपुष्पुट ) रोग कहते हैं। इसे विदारण कर, प्रतिसारणा करें ।। १०० ॥
तालु शोष लक्षण. विदार्यते तालु विशुष्यति स्फुटं । भवेन्महाश्वासगुतोऽतिरूक्षजः ॥ सतालुशोषो घृततैलमिश्रितैः । क्रियाः प्रकुर्यादिह वातपित्तयोः ॥१०१॥
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