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कल्याणकारके उद्रेक के अनुसार, भिषक मात्रा की कल्पना करें । क्यों कि मात्रा ही दोष शुद्धिकारक होती है अर्थात् औषधिको योग्य प्रमाण में प्रयोग करने पर ही बराबर दोषों की शुद्धि होती है अन्यथा नहीं ।। ७३॥
: शिरोविरेचन के सम्यग्योग का लक्षण,
श्रोत्री गलोष्ठनयनाननतालुनासाशुद्धिर्विशुद्धिरपि तबलवत्कफस्य । सम्यकृते शिरसि चापि विरेचनेऽस्मिन् ।
योगस्य योगविधितत्पतिषेधविद्भिः ॥ ७४ ॥ भावार्थः-शिरोविरेचन के प्रयोग करने पर यदि अच्छी तरह विरेचन हो जावे अर्थात् सम्यग्योग हो जावें तो, कर्ण, गला, ओठ, आंख, मुंह, तालु, नाक, इन की
और प्रबल कफ की अच्छी तरह विशुद्धि हो जाती है । इस प्रकार, शिरोविरेचन के योगातियोग आदि को जाननेवाले विद्वान् वैद्य सम्यग्योग का प्रयोग करें ॥ ७४ ।।
प्रधमन नस्य का यंत्र. छागस्तनद्वयनिभायतनास्य नाही ! युग्मान्वितांगुलचतुष्कमितां च धूम-। साम्याकृति विधिवरं सुषिरद्वयात्तं ।
यंत्रं विधाय विधिववरपीननस्यः ( ? ) ॥ ७५ ॥ - भावार्थ:-बकरी के दोनों स्तनों के सदृश आकारवाली दो नाडीयों से युक्त, चार अंगुल लम्ब', धूमनलिका के समान आकारवाला दोनों तरफ छेद से युक्त ऐसा एक यंत्र तयार करके उसके द्वारा प्रधर्मन नस्य का प्रयोग करना चाहिये ।।७५॥
• योगातियोगादि विचार. योगायं विधिवदा यथैव धूमे । प्रोक्तं तयेव रसनस्य विधी च सर्व । धृमातियोगदुरुपद्रवसच्चिकित्सां ।
नस्यातियोगविषयेऽपि च तां प्रकुर्यात् ॥ ७६ ॥ १ अवपीडन और प्रधमन, नस्य ये विरेचन नस्य के ही भेद हैं । शिरोविरेचक औषधियों के रस निकाल कर नाक में छोडना यह अवपीडन नस्य है। और इन्ही औषधियोंके चूर्ण को फूंक के दारा नाक में प्रवेश कराना इमे प्रधमन कहते हैं ।
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