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कल्याणकारके
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'अंतप्रदेश बिंध जाय तो विकलताकारक हो जाता है । सद्वैद्य को उचित है कि आप्त 'के द्वारा उपदिष्ट आगमों के आधार से अज्ञान को दूर कर विद्ध मर्मों के स्थानानुकूल जो फल है उन को देखकर कह दें ॥ ८३ ॥
उग्रादित्याचार्य का गुरुपरिचय. श्रीनंद्याचार्यादशेषागमज्ञाद्ज्ञात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् । तद्भषज्यप्रक्रमं चापि सर्व प्राणावादादेतदुध्दृत्य नीतम् ॥ ८४ ॥ ___ भावार्थ:-सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र को जाननेवाले, श्रीनंदि आचार्य की कृपासे प्राणांवादपूर्व शास्त्र से, उध्दत किये गये इस अष्टांग संयुक्त आयुर्वेद शास्त्र को, और उस में कथन किये गये त्रिदोष स्वरूप, त्रिदोषजन्य भयंकर रोग व उन को नाश करनेवाले औषध व प्रतीकारावीध इत्यादि सर्वविषयों को [ सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र को जाननेवाले श्रीनंदि नामक आचार्यकी कृपा से ] जानकर प्रतिपादन किया है । मुख्याभिप्राय इतना है कि उग्रादित्याचार्य के गुरु श्रीनद्याचार्य थे ॥ ८४ ॥
अष्टांगोंके प्रतिपादक पृथक् २ आचार्यों के शुभनाम. शालाक्यं पूज्यपादपकटितमधिकं शल्यतंत्रं च पात्र-। स्वामिप्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धैः ।। काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादैः शिशनां ।
वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादैर्मुनींद्रैः ॥ ८५ ॥ . . भावार्थः--श्री पूज्यपाद आचार्यने शालाक्यतंत्र, पात्राकेसरी स्वामी ने शल्यतंत्र, । प्रसिद्ध आचार्य सिद्धसेन भगवान् ने अगदतंत्र च भूतविद्या [ ग्रहरोगशमनविधान ]
दशरथ मुनीश्वर ने कायचिकित्सा, मेघनादाचार्यने कौमारभृत्य और सिंहनाद मुनींद्रने वाजीकरणतंत्र व दिव्यरसायनतंत्रा को बडे विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। १ शल्यतंत्र. २ शालाक्यतंत्र. ३ अगदतंत्र. ४ भूतविद्या. ५ कायचिकित्सा. ६ कौमा
'.. १ द्वादशांग शास्त्र में जो दृष्टिवाद नाम का जो बारहवां अंग है उसके पांच भेदों में से एक
भेद पूर्व (पूर्वगत) है । उसका भी चौदह भेद है । इन भेदों में जो प्राणावाद पूर्वशास्त्र है उसमें विस्तारके साथ अष्टांगायुर्वेद का कथन किया है । यही आयुर्वेद शास्त्रका मूलशास्त्र अथवा मूलवेद है। उसी वेद के अनुसार ही सभी आचार्योंने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया है ।
२ सिंहसेनै इति क. पुस्तके।
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