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रसरसायन सिध्यधिकारः ।
रखेंद्रमथ शोधयेत्सुरुचिरेष्टणान्वितं । स्तनोद्भवरसेन सम्यगत्रम खल्वोपले || सुरुकांजिका विपुलपात्रदोलागतं । पचेत्रिकटुकांजिकाळवणवर्ग हिंगुर्जितम् ॥ १३ ॥ एवं दिनत्रयमखण्डितवन्हिकुण्डे | स्विन्नसुखोष्णतरकांजिकया सुधौतः ॥ शुद्धी रसो भवति राक्षस एव साक्षात् । सर्व चरत्यपि च जीर्णयतीह लोहम् ॥ १४ ॥
भावार्थ:- : पारा में ईंट के चूर्ण व दूध मिलाकर खरल में अच्छी तरह वोटें । बोटेने के बाद उसे कांजीसे धोवें, इस से पारे की शुद्धि होती है । इस प्रकार शुद्ध पारद को सोंठ मिरच पीपल कांजी लवणवर्ग हींग इन में मिलाकर पोटली बांधे । बाद में उसे कांजी से भरे हुए बडे पात्र में, दोलायंत्र के द्वारा पकावे । ( एवं स्वेदन करें ) इस प्रकार बराबर तीन दिनतक स्वेदन करना चाहिये । स्वेदित करने के बाद उसे सुहाता २ कांजी से धोना चाहिये । ऐसा करने से पारा अत्यंत शुद्ध होता है एवं साक्षात् राक्षप्त के समान सम्पूर्ण धातुओंको खाता है और पचाता है । ( अर्थात् पारे में सोना आदि धातुओं को डालने पर एकदम वे उस में मिल जाते हैं वजन भी नहीं बढता । फिर उससे सोना आदिकोंको अलग भी नहीं ॥ १३ ॥ १४ ॥
तं वीक्ष्य भास्करनिभमभया परीतं । सिद्धान्प्रणम्य सुरसं परिपूज्य यत्नात् ॥ दद्यात्तथाधिकृतबीजमिहातिरक्तम् । सरंजित फलरसायनपादशांशम् || १५ || गर्भद्वैतः क्रमत एव हि जीर्णयित्वा । सूक्ष्मांवर द्विगुणितावयवसृतं तं ॥ क्षारत्रयैः त्रिकटुकै वैणस्तथामलैः । संभावितैर्विडवरैरधरोत्तरस्थैः ॥ १६ ॥ रम्भापलाशकमलोद्भव पत्रवर्गे । बद्ध चतुर्गुणितजीरकया च दोलां ॥ संस्वेदयेद्विपुळ भाजन कांजिकायां । रात्री तथा प्रतिदिनं विदधीत विद्वान् ॥ १७ ॥
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१ धृति इति पाठांतरं ||
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और पारे का कर सकते )
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