________________
( ६७४ )
कल्याणकारके
भावार्थ - वह रस सूर्य के समान उज्वल कांति से युक्त होता है । ऐसे रस को देख कर सिद्धों को नमस्कार कर के यन के साथ उस रस की पूजा करें और उस फलभूत रसायन में चौथाई हिस्सा योग्य अत्यंतलाल बीजे [ सुवर्ण ] को डालना चाहिए | पश्चात् उसे गर्भदुति के क्रम से जीर्ण कर के ( मिलाकर ) एक पतले कपडे को दुहरा कर उस से इस रस को छानें, तदनंतर छने हुए इस रस के ऊपर व नीचे क्षारत्रय, त्रिकटु, लवणवर्ग, अम्लवर्ग इन से भावित विडे को रखें ( उस के बीच में रस रख दे ) और उसे केला, पलाश, कमल इन के पत्तियों से बांध कर पोटली करें । इस पोटली को कांजी से भरे हुए एक बड़े पात्र में जिस में चतुर्गुण जीरा डाला गया है। दोलायंत्र के द्वारा पकाकर स्वेदन करना चाहिए । अर्थात् बाफ देना चाहिए | विद्वाम् वैद्य को उचित है कि इस क्रिया को प्रतिनित्य रात में ही करें || १५-१६-१७ ।।
बीजाभ्रतीक्ष्णमाक्षिकधातुसत्व- ।
संस्कारमत्र कथयामि यथाक्रमेण || -संक्षेपतः कनककृद्रसबंधनार्थ ।
योगिप्रधान परमागमतः प्रगृह्य || १८ ||
भावार्थ:- :- अब यहांसे आगे योगियों के द्वारा प्रतिपादित परमागम शास्त्र के आधारसे सुवर्णकारक रसबंधन करनेके लिये क्रमशः सुवर्ण, अभ्रक, तीक्ष्ण लोह माधवन के सत्वों के क्रमशः संस्कार करेंगे ॥ १८ ॥
ताम्रं सुबीजसदृशं परिगृह्य ताम्रं । पत्रीकृतं द्विगुणमाक्षिककल्कलिस ॥
१ कोई एक धातु पत समय उसमें दूसरा धातु डालने से वह उस डाले हुए धातु के रंग से युक्त हो जाय, तो इस बीज कहते हैं। कहा भी है। निर्वापणविशेषेण ततद्वणं भवेद्यदा । मृदुलं चित्रसंस्कारं तद्बीजमिति कथ्यते || शुद्ध सोना चांदी को बीज कहते हैं:शुद्धं स्वर्ण च रूप्यं च बीजमित्यभिधीयते ॥
२ किसी भी पदार्थ को पारा में ग्रास कराना जो उसे पाराके गर्भ [ अंदर ] में हो रस रूप बनाना पडता है उसे गर्भद्रुति कहते हैं । कहा भी है:- ग्रासस्य द्रावणं गर्भे गर्भद्रुतिरुदाहृता ॥
Jain Education International
३ पाराके द्वारा ग्रास किये हुए किसी भी धातु को जीर्ण करने के लिए क्षार, अम्लपदार्थ गंधक, गोमूत्र, लवण आदि पदार्थों का जो संयोग किया जाता है उन पदार्थों को विंड कहते हैं ॥ कहा भी है:- झारेरग्लैश्च गंधाद्यैर्मूत्रैश्च पदुभिस्तथा ॥
रसप्रासस्य जाणार्थ ताडं परिकीर्तितं ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org