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________________ ( ४६४ ) फेनमुद्रमति भीषणोद्यपस्मारकिं पुरषनामको ग्रहः । तं शिरीषसुरसैस्स बिल्वकैः स्नापयेदिह विपक्कवारिभिः ॥ ७८ ॥ भावार्थ:- नानाप्रकारको वेदनाओ से बालक बेहोश हो जाता है, कभी होश में भी आता है, हाथ पैरों को इस प्रकार हिलाता है जिससे वह नाचता हो जैसा मालूम होता है । नमते व जंभाई लेते हुए अधिक मल मूत्रको त्याग करता है, फेन ( झाग ) को वमन करता है तो समझना चाहिये कि वह भयंकर किंपुरुपापस्मार नामक ग्रह से पीडित है । इसे शिरीष, तुलसी वे इन से पकाये हुए जल से स्नान कराना चाहिये || ७७ ॥ ७८ ॥ कल्याणकारके किपुरुषत्न तैल व वृत सर्वगंधपरिपक्कतैलमभ्यंजने हितमिति प्रयुज्यते । क्षीरवृक्षमधुरैश्च साधितं पाययेद्धृतमिदं पयसा युतम् ॥ ७९ ॥ भावार्थ:-- इस में सम्पूर्ण गंधद्रव्यों से सिद्ध तेल का मालिश करना एवं क्षीरीवृक्ष, (गुलर आदि दूधवाले वृक्ष) व मधुर औषधियों से साधित घृत को दूध मिला कर पिलाना भी हितकारी है । किंपुरुषग्रहन धूप. 1 गोवृषस्य मनुजस्य लोमकेशैर्नखैः करिपतेर्धृतप्लतैः । गुधकौशिक पुरीषमिश्रितैर्धृपयदपि शिशुं ग्रहादितम् ॥ ८० ॥ भावार्थ:- किंपुरुष ग्रह से पीडित बालक को, गाय, बेल मनुष्य इन के रोम, केश वनख, हाथी के दांत, गृध्रपक्षी व उल्लू के मल, इन सब को एकत्र मिलाकर और घी में भिगोकर धूप देना चाहिये ॥ ८० ॥ स्नान, वाले, धारण. स्नापयेदथ चतुष्पथे शिशुं दापयेदिह टांपिं बलि । मर्कटीमपि कुक्कुटीमनं तां च विलतया स धारयेत् ॥ ८१ ॥ भावार्थ:-उपरोक्त ग्रह से पीडित बालक को चौराहे पर स्नान कराना चाहिये । एवं वटवृक्ष के समीप बलि चढाना चाहिये । कौंच कुक्कुटी ( सेमल ) अनंत [ उत्पल सारिवा ] कंदूरी [ इन के जड ] को हाथ वा गले में पहनावें ॥ ८१ ॥ १ अन्ये तु कुक्कुटशरीरवत् कुसल चित्रावली स्पारिक रचित कुटांकं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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