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________________ अथ हिताहिताध्यायः । (७२७ ) चतुष्कस्य प्रणाशे नृनाशः । तथा चैवं समधात्वाधारोग्यरुचिशक्तिबलानि लक्षणं तस्य साधनमस्य हितमितफलमस्य चतुष्टयावाप्तिमानेवमेतस्मिन् वैद्यशाने धर्मार्थमोक्षस धनपरे सर्वज्ञभाषितेऽनेकलोकहितकरसर्वधर्मशास्त्रमाणावाये विद्यमानेपि तत्परित्यज्य तत्प्रतिपक्षकाराविरतिकठिनक.ठोरेनिष्ठुरहृदयैश्च वानरोरगादिभक्षकविश्वामित्रगौतमकाश्यपपुत्रादिपरिव्राजकेरसर्वभक्षिमिरन्यैरपि दुरात्मभिरिदानींतनवेधशास्त्राणां प्रणेतृभिः पांडवचरकभिक्षुतापसप्रभृतिमांसलोलुपैरत्यंतविशुद्धान्नपानविधिविविधौषधधान्यवेदलकंदमूलफल - पत्रशाकवर्गाधिकारे विशुद्धद्रवद्रव्यविधौ च विगतमलकलंकोदकसंपूर्णमहातटाकसतो चांडालमातंगप्रभृतिभिर्दुर्जनः सजनप्रवेशनिवारणार्थं गोशृंगस्थापनमिव कनिष्ठनिष्ठुरदुष्टजनैसर्वज्ञप्रणीतप्राणायायमहागमनिर्गतसद्धर्मवैद्यशास्त्रतस्करैस्तेधर्मचिह्ननिगृहनार्थ पूर्वापर विरुद्धदोषदुष्टमतिकुटिलैः पिशिताशनलंपटेश्चटुलतरलमधुमद्यमांसनिषेवणमविशिष्टजनोपदिष्टं कष्टं पश्चात्तममेव निश्चीयते । तत्कथं पूर्वापरविरोवदुष्टमिति चेदुच्यते । __अनारोग्ययुक्त मनुष्प धीस्वार होनेपर भी वह धर्मका आचारण नहीं करसकता, वह अर्थ का उपार्जन नहीं कर सकता, भोगोंको भोग नहीं सकता, मोक्ष में जा नहीं सकता, उसे न चतुर्वर्ग की सिद्धि ही हो सकती और न आरोग्य शास्त्रका अध्ययन ही उससे होसकता है । इस प्रकार चतुर्वर्गके नाश होनेपर मनुष्यका अस्तित्वका ही नाश होता है । अर्थात् वह किसी काम का नहीं है । इसलिये सपधातु आदि आरोग्य, कांति, शकि, बल ही जिस स्वास्थ्यका लक्षण है और जो चतुर्वर्गकी प्राप्ति के लिए साधनभूत हैं उनका कथन धर्मार्थ मोक्ष को साधन करनेवाले, सर्वज्ञभाषित, अनेक लोक के लिए हितकारक अतएव धर्मशास्त्र रूपी इस वैद्यशास्त्र प्राणावाय में होने पर भी उस छोडकर उस से विपरीत वृत्तिको धारण करनेवाले अविरतिकठिनता से कठोर व निष्ठुर हृदय को धारण करनेवाले, बानर उरगादि (बंदर, सर्प) को भक्षण करनेवाले विश्वामित्र, काश्यप पुत्र, आदि सन्यासियोंद्वारा एवं सर्व भक्षक आजकल के अन्य दुष्ट शास्त्रकार पांड्य, चरक, भिक्षु, तापस अदि मांशलोलुपों द्वारा अत्यंक शुद्ध अन्नसान विधि व विविध धान्य, द्विदल, कंदमूल, फल, पा व शाक वर्गाधिकार में एवं द्रवप विधान में जिस प्रकार विगतमलकलंक (निर्मल ) जलसे भरे हुए सरोवर के तटमें चांडाल म तंग आदि दुष्टजन, सज्जनों के प्रवेशको रोकने के लिए गोश्रृंगादिको डाल देते हैं, उसीपकार जघन्य निष्ठरहृदय दुष्टजन एवं सर्वज्ञवणीत प्राणावाय महागम से निकले हुए वैधक रूपी धर्मशास्त्र के चोर, पूर्वापर विरुद्ध दोषों से दुष्ट, अतिकुटिलमतियुक्त, मां भोजनलंपट ऐसे दुर्जनों के द्वारा उस सद्धर्म के चिन्ह को छिपाने के लिए इस वैद्यशास्त्र में नीचजनोचित अत्यंत कष्टमय मधुमद्यमांस सेवनका विधान बादमें मिल गया गया है इसप्रकार निश्चय किया जाता है। वह पूर्वापरविरोधदषसे दुष्ट क्यों है इस का उत्तर आचार्य देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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