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________________ ( ७२८ ) . कल्याणकारके वैद्यशास्त्रस्यादावेव पूर्वाचायर्मूलतंत्रकर्तृभिः परमर्षिभिः पात्रापात्रविवेकज्ञैः कर्तव्याकर्त. व्यनिवहनिश्चिकित्सेयं योग्यानामेव कर्तव्योति विधिप्रतिषेधात्मकं शास्त्रमुक्तं । द्विजसाधुबांधवाभ्युपगतजनानां चात्मबांधवानामिवात्मभेषजः प्रतिकर्तव्यम् । एवं साधु भवति । व्याधशाकुनिकपतितपापकर्मकृतां च न प्रतिकर्तव्यम् । एवं विद्या प्रकाशते, मित्रयशोर्थधर्म कामाश्च , भवंतीत्येवं पूर्वमुक्तं, पश्चान्मांसादिनिषवेण कथं स्वयमेवाचार्याः प्रतिपादयंति पूर्वापरविरुद्धमेतत् । तस्मादन्येरेव दुश्चरितः पश्चात्कृतमिति निश्चेतव्यं । .... अथवा वैद्यशास्त्रे तावन्मांसोपयोग एव न घटते । कथमिति चेदन्नभेषजरसायनेभ्यो भिन्नत्वात् । कथं ब्रह्मादिरपि लोकस्याहारस्थित्युत्पत्तिहेतुरित्युक्तत्वात् । न च ब्रह्मादीनां मांसमाहारार्थं जग्विरित्यन्नक्रमो युक्तश्च क्षीरपाः क्षीरान्नदा अन्नदाश्चेति ततः परमान्नदा इति वचनात् । तथा महापाठे शिशूनामन्नदानमाहारविधौ प्रथमषण्मासिकं लध्वन्नपयसा भोजयोदिति वचनात् । मांसमन्नं न भवत्येव, पयसात्यंतविरोधित्वात् । तथाचोक्तम् ।। ... वैद्यशास्त्र के आदि में ही मूल तंत्रकार परमर्षि, पात्रापात्रविवेकज्ञ, पूर्वाचार्योने . कर्तव्या तिव्यधर्म से युक्त इस चिकित्साको योग्योंके प्रति ही करनी चाहिये, अयोग्यों के प्रति नहीं, इस प्रकार विधिनिषेधात्मक शास्त्र को कहा है। द्विज साधु व बांधयों के समान रहनेवाले मित्र आदि सजनोंकी चिकित्साको अपने आत्मीय बांधवोंके समान समझकर अपने औषधों से करनी चाहिये । वह कर्तव्य प्रशस्त है। परंतु भिल्ल, शिकारी, पतित आदि पापकर्मो को करनेवालोंके प्रति उपकार नहीं करना चाहिये. अर्थात् चिकित्सा नहीं करनी चाहिये । कारण कि वे उस उपकार का उपयोग पापकर्म के प्रति करते हैं। इस प्रकार इस वैद्य विद्याकी उन्नति होती है एवं मित्रा, यश, धर्म, अर्थ कामादिकी प्राप्ति होती है, इस प्रकार पहिले कहकर बादमें मांसादि सेवनका विधाम आचार्य स्वयं कैसे कर सकते हैं ? यही पूर्वापरविरोध है। इसलिये अन्य दुरात्मावोंने ही पीछेसे उन ग्रंथोमें उसे मिलाया इस प्रकार निश्चय करना चाहिये । अथवा वैद्यशास्त्रमें मांसका उपयोग ही नहीं बन सकता है। क्यों कि वह मांस अन, औषध व रसायनों से अत्यंत भिन्न है । क्यों ? क्यों कि आपके आगमो में कहा है कि ब्रह्मादि देव भी लोके आहार की स्थिति व उत्पत्ति के लिए कारण हैं । ब्रह्मादियों के मत से आहारके कार्य में मांसका उपयोग अन्न के रूप में कभी नहीं हो सकता है । और न वह उचित ही है। क्यों कि आहारकपकी वृद्धि में क्षीर क्षीरान, अन्न, परमान इत्यादि के क्रम से वृदि बतलाई गई है । मांसका उल्लेख उस में नहीं है। इसी प्रकार महापाठ में बालकों को अन्नदानआहारविधान के प्रकरण में पहिले छह महिने बधु [ हलका ] अन्न व दूध का भोजन कराना चाहिये, इसपकार कहा है । मांस तो अन्न कभी नहीं होसकता है । क्यों कि दूध के साथ उसका अत्यंत विरोध है। उसी प्रकार कहा भी है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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