SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 593
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५००) कल्याणकारके भावार्थ:-कूठ, चंदन, रेणुका हलदी, देवदारु, छोटी बडी कटेहरी, मंजीठ, फूलप्रियंगु, वायविडंग, नीलीवृक्ष, सारिवा, तगर, दुर्गंधकरंज, इनसे पका हुआ घृत समस्त उग्र विषोंको नाश करनेके लिये समर्थ है। [ इसलिये इसका नाम उपविषारि रखा है ] इसे सेवन करनेवाला समस्त विषोंको जीतता है । एवं विषपीडित मनुष्योंको इस उत्तम घृत से पान, नस्य, अंजन लेपनादिकी योजना करनी चाहिये ॥ ६४ ॥६५॥ दूधीविषारिअगद. पिप्पलीमधुककुंकुमकुष्ठध्यामकस्तगरलाध्रसमांसी-। चंदनोरुरुचकामृतवल्येलास्सुचूर्ण्य सितगव्यघृताभ्याम् ॥ ६६ ॥ मिश्रितौषधसमूहमिमं संभक्ष्य मंक्षु शमयत्यतिदूषी-। दुर्विषं विषमदाहषातीव्रज्वरप्रभृतिसर्वविकारान् ॥ ६७ ॥ भावार्थ:-पीपल, मुलैठी, कुंकुम [ केशर ] कूठ, ध्यामक [ गंधद्रव्य विशेष ] तगर, लोध, जटामांसी, चंदन, सज्जखिार, गिलोय, छोटी इलायची, इनको अच्छीतरह चूर्णकर शकर व गाय के घृतके साथ मिलावें, उसे यदि खावे तो दूषीविष, विषमदाह, तृषा, तीव्रज्वर आदि समस्त दूषीविषजन्य विकार शांत होते हैं ।। ६६॥ ६७ ॥ इति स्थावरविषवर्णन. अथ जंगमविषवर्णन. जंगमविष के षोडशभेद. जंगमाख्यविषपप्यतिघोरं प्रोच्यते तदनु षोडशभेदम् । दृष्टिनिश्वसिततीक्ष्णसुदंशालालमूत्रमलशुक्रनखानि ॥ ६८ ॥ वातपित्तगुदभागनिजास्थिस्पर्शदंशमुखशूकशवानि । पोडशप्रकटितानि विषाणि प्राणिनाममुहराण्यशुभानि ।। ६९ ॥ भावार्थ:-अब अत्यंत भयंकर जंगम ( प्राणिसम्बधी) विष का वर्णन करेंगे। इस विष के ( प्राणियों के शरीर में ) सोलह अधिष्ठान [ आधारस्थान ] हैं । इसलिये इसका भेद भी सोलह हैं । दृष्टि [ आंख ] निश्वास, डाढ, लाल [ लार ] मूत्र, मल १ सित इति पाठांतरं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy