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विषरोगाधिकारः ।
(५०१)
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( विष्ठा ) शुक्र [ धातु ] नख ( नाखून ) वात, पित्त, गुदाप्रदेश, अस्थि (हड्डी) स्पर्श, मुखसंदंश [ मुख के पकड ] शूक [डंक या कांटे ] शव [ मृत शरीर ] ये स्थावर विष के सोलह अधिष्ठान ( आधार ) हैं । अर्थात् उपरोक्त आधार में विष रहता है, वे विष प्राणियों के प्राणघात करनेवाले हैं, अतएव अशुभ स्वरूप हैं ॥ ६८ ॥ ६९ ॥
दृष्टिनिश्वासदंष्ट्रविष. दृष्टिनिश्वसिततीव्रविषास्त दिव्यरूपभुजगा भुवि जाता।... दंष्ट्रिणोऽश्वखरवानरदुष्टश्वानदाश्व [?] दशनोग्रविषायाः ॥ ७० ॥
भावार्थ:--जो दिव्ये सर्प होते हैं उन के दृष्टि व निश्वास में तीव्रविष रहता है। जो भूमि में उत्पन्न होनेवाले सामान्य सर्प हैं उन के दंष्ट्रा (डाढ) में विष होता है। घोडा, गधा, बंदर, दुष्ट (पागल) कुत्ता, बिल्ली आदि के दांतों में उग्रविष होता है ।।७०॥
दंष्ट्रनख विष. शिंशुमारमकरादिचतुष्पादप्रतीतबहुदेहिगणास्ते। .. . दंतपंक्तिनखतीविषोग्राभेकवर्गगृहकोकिलकाश्च ।। ७१ ॥ ..
भावार्थ:--शिंशुमार (प्राणिविशेष ) मगर आदि चार पैरवाले जानवर व कई जाति के मेंडक (विषैली) व छिपकली दांत व नाखूनमें विषसंयुक्त होते हैं ॥ ७१ ॥
मलमूत्रदंष्ट्रशुक्रलालविष.... ये सरीसृपगणागणितास्ते मूत्रविड्दशनतीविषाढ्याः। मूषका बहुविधा विषशुक्रा वृश्चिकाच विषलालमलोग्राः ॥ १२ ॥
भावार्थ:-जो रेंगनेवाले जीव हैं उनके मूत्रा, मल व दांतमें तीव्रविष रहता है । बहुतसे प्रकार के चूहों को शुक्र [ धातु ] में विष रहता है । बिछुवों के लार व मल में विष रहता है ॥ ७२ ॥
स्पर्शमुखसंदंशवातगुदविष. ये विचित्रतनबो बहुपादाः स्पर्शदंशपवनात्मगुदोग्राः । दंशतः कुणभवर्गजलूका मारयति मुखतीव्रविषेण ॥ ७३ ॥
१ थे सर्प देवलोक में होते हैं। ऐसे सर्प केवल अच्छीतरह देखने व श्वास छोड़ने मात्र से विष फैल कर बहुत दूर तक उस का प्रभाव होता है !
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