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१ मैसोर गवर्नमेंट लायब्ररीके ताडपत्रकी प्रतिकी प्रतिलिपि । प्रतिलिपि सुंदर है। जैसे बाह्यलिपि सुंदर है, उस प्रकार लेखन बिलकुल शुद्ध नहीं है । साथमें हिताहिताध्याय का प्रकरण तो लेखक के प्रमाद से बिलकुल ही रह गया है।
२ यह प्रति ताडपत्र की कानडी लिपिकी है। स्व. पं. दोर्बली शास्त्री श्रवणबेलगोला के ग्रंथ-भांडार से प्राप्त होगई थी। गांधी नाथारंगजी जैनोन्नति फंड की कृपा से यह प्रति हमें मिली थी । ताडपत्र की प्रति होने पर भी बहुत शुद्ध नहीं कही जा सकती है ।
३ मुंबई ऐ. प. सरस्वती भवन की प्रति है। जो कि उपर्युक्त नं. २ की ही प्रतिलिपि मालुम होती है । मूलप्रति में ही कहीं २ हस्तप्रमाद होगया है । उत्तर प्रति में तो पूछिये ही नहीं, लेखकजी पर प्रमाद-देवता की पूर्ण कृपा है ।
४ रायचूर जिले के एक उपाध्याय ने लाकर हमें एक प्रति दी थी। जो कि कागद पर लिखी हुई होने पर भी प्राचीन कही जा सकती है । ग्रंथ प्रायः शुद्ध है । अनेक स्थलोंपर जो अडचनें उपस्थित होगई थी, उनकी इसी प्रति ने दूर किया । प्रति के अंतमें लेखक की प्रशस्ति भी है । उस में लिखा है कि
___“ स्वस्तिश्रीमत्सर्वज्ञसमयभूषण केशवचन्द्रत्रविद्यदेवशिष्यैालचंद्रभट्टारकदेवर्लिखितं कल्याणकारक" जैसे ग्रंथप्रामाण्य के लिए गुरुपरंपरा की आवश्यकता है उसी प्रकार लेखन प्रामाण्य को दिखलाने के लिए लेखक ने लेखन परंपरा का उल्लेख किया है। वह इस प्रकार है
___" पूर्वदल्लि लिखितव नोडिकोंडु बरदरु- अर्थात् बालचन्द्र भट्टारकने पूर्वलिखित ग्रंथको देखकर इस ग्रंथकी लिपि की । उन्होने अपने गुरुके गुणगौरवको उल्लेख करते हुए निम्न लिखित श्लोकको लिखा है ।
केचित्तर्कवितर्ककर्कशधियः केचिच्च शब्दागम-- क्षुण्णाः केचिदलं कृतिप्रवितथ-प्रज्ञान्विताः केवलं । केचित्सामयिकागमैकनिपुणाः शास्त्रेषु सर्वेष्वसौ ।
प्रौढः केशवचंद्रसूरिस्तुलः प्रोद्यनिविद्यानिधिः ॥ आगे लिखा है कि स्वस्तिश्री शालिवाहन शक वर्ष १३५१नेय सौम्यनाम संवत्सरद ज्येष्ठ शुद्ध २ गुरुवारदल्लु श्री बालचंद्र भट्टारकर बरद ग्रंथ । अदनोडि अवर शिष्यरु बरदुकोडरु. आ प्रति नोडि स्वस्तिश्री शक वर्ष १४७६ वर्तमान आनंदनाम संवत्सरद कार्तिक शुद्ध १५ शुक्रवारदल्लु श्रीमत्तुमटकर बस्तिय इंद्रवंशावय देचण्णन सुत वैद्य नेमण्ण पंडितनु मुन्नजर प्रति नोडि उद्धरिसिदरु, अदु प्रतिनोडि शकवर्ष १५७३
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