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________________ (28) ने य खरनाम संवत्सरद वैशाख शुद्ध शुक्रवारदल्लु श्रीमत् चाकूरु शुभस्थान श्री पार्श्वजिननाथ सन्निधियल्लु इंद्रवंशान्वय रायचूर वैद्य चंदप्पय्यन पुत्र वैद्य भुजबलि पंडित बरेद प्रति नोडि श्रीमनिर्वाण महेंद्रकीर्तिजीयवरु बरदरु ॥ श्री ॥ अर्थात् शालिवाहन शकवर्ष १३५१के सौम्य संवत्सरके ज्येष्ठ शु.२ गुरुवारको श्रीबालचंद्र भट्टारकजीने इस ग्रंथकी प्रतिलिपि की। उसपरसे उनके शिष्योनें प्रतिलिपि ली । उन प्रतियों को देखकर स्वस्तिश्री शक वर्ष १४७६ , आनंदनाम संवत्सर, कार्तिक शु. १५ शुक्रवार के रोज तुमटकरके इंद्रवंशोत्पन्न देचण्णका पुत्र वैद्य नेमण्णा पंडितने प्रति की । उस प्रतिको देखकर शकवर्ष १५७३ के खरनाम संवत्सर, वैशाख शुद्ध शुक्रवारके रोज श्री चाकूर शुभस्थान श्री पार्श्वनाथ स्वामीके चरणोमें रायचूरके इंद्रवंशान्वय वैद्य चंदप्पय्यके पुत्र वैद्य भुजबलि पंडितके द्वारा लिखित प्रतिको देखकर श्री निग्रंथ महेंद्रकीर्तिजीने लिखा"। ___ इस प्रकार चार प्रतियोंकी सहायता से हमने इसका संशोधन किया है । कई प्रतियोंकी मिलान से शुद्ध पाठको देनेका प्रयत्न किया गया है। कहीं कहीं पाठ भेद भी दिया गया है । अंतिम प्रकरण हिताहिताध्याय दो प्रतियोंमें मिला । वह लेखक की कृपा से इतना अशुद्ध था कि हम उसे बहुत प्रयत्न करने पर भी किसी भी प्रकार संशोधन भी नहीं कर सके । इसलिए हमने उस प्रकरण को ज्यों का त्यों रख दिया है । क्यों कि अपने मनसे आचार्यों की कृति में फरक करना हमें अभीष्ट नहीं था। आगे और कभी साधन मिलने पर उस प्रकरण का संशोधन हो सकेगा। जैन वैद्यकग्रंथोंकी विशेषता. जैनाचार्योके बनाये हुए ज्योतिष ग्रंथ जैसे हैं वैसे ही वैद्यक ग्रंथ भी बहुतसे होने चाहिये। परंतु उनमें आजतक एक भी ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। जिन ग्रंथोंकी रचनाका पता चलता है उन ग्रंथोंका अस्तित्व हमारे सामने नहीं है। समंतभद्रका वैद्यक ग्रंथ कहां है ? " श्रीपूज्यपादोदितं " आदि श्लोकोंको बोलकर अनेक अजैन विद्वान् वैद्यकांसे अपना योगक्षेम चलाते हुए देखे गये हैं। परंतु पूज्यपादका समग्र आयुर्वेद ग्रंथ कितने ही ढूंढनेपर भी नहीं मिल सका । और भी बहुतसे वैद्यक ग्रंथोंका पता तो चलता है ( आगे स्पष्ट करेंगे ) परंतु उपलब्धि होती नहीं । जो कुछ भी उपलब्ध होता है, उन ग्रंथोंके रक्षण व प्रकाशनकी चिता समाजको नहीं है यह कितने खेदकी बात है । आज भारतवर्ष में जैनियोंका प्रकाशित एक भी वैद्यक ग्रंथ उपलब्ध नहीं, यह बहुत दुःख के साथ कहना पडता है वैद्यक ग्रंथोंका यदि प्रदर्शन भरेगा तो क्या जैनियोंका स्थान उसमें शून्य रहेगा ? अत्यंत दुःख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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