________________
(24)
जैनेतर वैद्यक ग्रंथोंकी अपेक्षा जैन वैद्यक ग्रंथो में विशेषता न हो तो अजैन विद्वान् जैन वैद्यक ग्रंथोंके आधारसे ही अपना प्रयोग क्यों चलाते । अजैन ग्रंथों में भी जगह २ पर पूज्यपादीय आदि आयुर्वेदके प्रमाण लिये गये हैं। एक बातकी विशेषता है कि जैनधर्म जिस प्रकार अहिंसा परमो धर्म को सिद्धांतमें प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार उसे वैद्यक ग्रंथमें भी अक्षुण्ण बनाये रखता है। जैनाचार्योके वैद्यक ग्रंथमें मद्य, मांस, मधु का प्रयोग किसी भी औषधि में अनुपानके रूपसे या औषधके रूपसे यहीं बताया गया है। केवल वनस्पति, खनिज, क्षार, रत्नादिक पदार्थोका ही औषध में उपयोग बताया गया है। अर्थात् एक प्राणिकी हिंसा से दूसरी प्राणी की रक्षा जैनधर्म के लिए संमत नहीं है। इसलिए उन्होंने हिंसोत्पादक द्रव्योंका सेवन ही निषिद्ध बतलाया है ।।
दूसरी बात आगमोंकी स्वतंत्र कल्पना जैन परंपराको मान्य नहीं है । वह गुरुपरंपरा से आनेपर ही प्रमाण कोर्टिमें ग्राह्य है । उस नियम का पालन वैद्यक ग्रंथमें भी किया जाता है । मनगढंत कल्पना के लिए उस में भी स्थान नहीं है।
इतर वैद्यक ग्रंथों में औषधियोंका प्रयोग, स्वास्थ्यरक्षा आदि बातें ऐहिक प्रयोजन के लिए बतलाई गई है। शरीर को निरोग रखकर उसे हट्टा कट्टा बनाना व यथेष्ट इंदिय भोग को भोगना यही एक उनका उद्देश्य सीमित है। परंतु शरीरस्वास्थ्य, आत्मस्वास्थ्य के लिए है, इंद्रियोंके भोगके लिए नहीं, यह जैनाचार्योने जगह जगह पर स्पष्ट किया है । इसलिये ही औषधियोंके सेवनमें भी जैनाचार्योनें भक्ष्याभक्ष्य सेव्यासेव्य आदि पदार्थोका ख्याल रखने के लिये आदेश किया है।
इस प्रकार जैन-जेनेतर आयुर्वेद ग्रंथोंको सामने रखकर विचार करनेपर जैनाचार्यों के वैद्यक ग्रंथीमें बहुत विशेषता और भी मालुम हो जायगी।
जैन वैद्यककी प्रामाणिकता जैनागममें प्रामाणिकता सर्वज्ञ-प्रतिपादित होनेसे है। उसमें स्वरुचिविरचितपनेको स्थान नहीं है । सर्वज्ञ परमेष्टीके मुखसे जो दिव्यध्वनि निकलती है उसे श्रुतज्ञानके धारक गणधर परमेष्ठी आचारांग आदि बारह भेदोमें विभक्त कर निरूपण करते हैं । उनमें से बारहवें अंगके चौदह उत्तर भेद है। उन चौदह भेदोमें (पूर्व ) प्राणावाय नामक एक भेद है । इस प्राणावाय पूर्वमें " कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्रणावायम्" अर्थात् जिस शास्त्रमें काय, तद्गतदोष व चिकित्सादि अष्टांग आयुर्वेदका वर्णन विस्तार से किया गया हो, पृथ्वी आदिक भूतोंकी क्रिया, विषैले जानवर व उनकी चिकित्सा वगैरह,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org