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तथा प्राणापानका विभाग जिसमें किया हो उसे प्राणायायपूर्व शास्त्र कहते हैं। इस प्राणावाय पूर्व के आधारपर ही उपदित्याचार्य ने इस कल्याणकारक की रचना की है। ऐसा महर्षिने ग्रंथमें कई स्थानोंपर उल्लेख किया है । ओर ग्रंथके अंतमें उसे स्पष्ट किया है।
सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भापाविशेषाजल-, प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुगणैरुद्भासिसौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयाः ॥ अ. २५ श्लो० ५४
सुंदर अर्धमागधी भाषामें अत्यंत शोभा से युक्त महागंभीर ऐसा प्राणावाय नामक जो महान् शास्त्र है, उसको यथावत् संक्षेप मे संग्रह कर महात्मा गुरुवोंकी कृपासे उग्रादित्याचार्यने सर्व प्राणियोंका कल्याण करने में समर्थ इस कल्याणकारकको बनाया । वह अर्धमागधी भाषा में है और यह संस्कृत भाषामें है । इतना ही दोनोमें अंतर है। इसलिए यह आगम उस द्वादशांग का ही एक अंग है । और इस ग्रंथ की रचना में महर्षिका निजी कोई स्वार्थ नहीं है । तत्वविवेचन ही उनका मुख्य ध्येय है । इसलिए इसमें अप्रामाणिकता की कोई आशंका नहीं की जा सकती। अतएव सर्वतो प्रामाण्य है।
उत्पत्तिका इतिहास. ग्रंथ के प्रारंभ में महर्षिने आयुर्वेद-शास्त्रकी उत्पत्ति के विषयमें एक सुदर इतिहास लिखा है । जिसको बांचने पर उसकी प्रामाणिकता में और भी श्रद्धा सुदृढ हो जाती है । ___ ग्रंथ के आदि में श्री आदिनाथ स्वामीको नमस्कार किया है । तदनंतरतं तीर्थनाथमधिगम्य विनम्य मूर्ना । सत्मातिहार्यविभवादिपरीतमूर्तिम् । सप्रश्रयाः त्रिकरणोरुकृतपणामाः पप्रच्छुरित्थमखिलं भरतेश्वरायाः ॥
श्री ऋषभनाथ स्वामी के समवसरण में भरतचक्रवर्ति आदि भव्योंने पहुंचकर श्री भगवंत की सविनय वंदना की और भगवान् से निम्न लिखित प्रकार पूछने लगे-.
भो स्वामिन ! पहिले भोगभूमि के समयमें मनुष्य कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न अनेक प्रकार के भोगोपभोग सामग्नियोंसे सुख भोगते थे। यहां भी खूब सुख भोगकर तदनंतर स्वर्ग में पहुंचकर वहां भी सुख भोगते थे । वहांसे फिर मनुष्य भवमें आकर अनेक पुण्यकार्योको कर अपने २ इष्ट स्थानोंको प्राप्त करते थे । भगवन् ! अब भारतवर्षको कर्मभूमि का रूप मिला है । जो चरमशरीरी हैं व उपपाद जन्ममें जन्म लेनेवाले हैं उनको तो अब भी अपमरण नहीं है। उनको दीर्घ
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