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________________ ( ५१६ ) कल्याणकारके तेषां दंष्ट्रा यस्ताबडिशवदत्तिवक्रास्ततस्ते भुजंगाः । सुचत्युध्दृत्य ताभ्यो विषमतिविषमं विश्वदोषप्रकोपम् ॥ १२६॥ भावार्थ:- जिस प्रकार प्रियतमा के दर्शन स्पर्शनादिक से अथवा मिन के स्पर्श से सुख मालूम होता हो ऐसे पदार्थों के स्पर्श से, सर्वांग में व्याप्त होकर रहनवाला शुक्र, शुक्रवाहिनी शिराओं को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार सर्प के सर्वांग में संस्थित विष, कोयमान होने के समय शरीर से शीघ्र आकर डाढों के अग्रभाग को प्राप्त हो जाता है । उन सर्पों के डाढ वडिश अर्थात् मछली पकड़ने के कांटे के समान अत्यंत वक्र होते हैं। इसलिये वे सर्प उन डाढोंसे काटकर समस्तदोषप्रकोपक व अत्यंत विषम विषको; उस घाव में छोडते हैं अर्थात् काटे विना सर्प विष नहीं छोडते हैं ॥ १२६ ॥ विवगुण. अत्युष्णं तक्ष्णिमुक्तं विषमतिविषतंत्रप्रवीणैः समस्तं । तस्माच्छीतांबुभिस्तं विषयुतमनुजं सेचयेचद्विदित्वा ॥ कीटानां शीतमेतत्कफवमनकृतं चाग्निसंस्वेदधूपै - 1 रुष्णा लेपोपना हैरधिकविषहरैः साधयेदाशु धीमान् ॥ १२७ ॥ भावार्थ: - विष अत्यंत उष्ण एवं तीक्ष्ण है ऐसा विषतंत्रमें प्रवीण योगिकहा है । इसलिये इन विषों से पीडित मनुष्य को ठण्डे पानीसे स्नान करामा आदि शीतोपचार करना हितकर है। कीटोंका विष शीत रहता है। इसलिये वह कफवृद्धि व वमन करनेवाला है । उस में अग्निस्वेद, धूप, लेप, उपनाह आदि विषहर प्रयोगों से शीघ्र चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १२७ ॥ - Jain Education International विषपीतलक्षण. मांसा तालका सृजति मलमिहाध्मानमिष्पीडितांग: । फेन बक्त्रादजस्रं न दहति हृदयं चाग्निरप्यातुरस्य ॥ तं दृष्ट्वा तेन पीतं विषमतिविषमं ज्ञेयमेभिः स्वरूपै - । र्दष्टस्यासाध्यतां तां पृथगथ कथयाम्यर्जिताप्तोपदेशात् ॥ १२८ ॥ भावार्थ:-- जो आध्मान ( पेट का फूलना ) से युक्त होते हुए, कब मांस ब हरताल के सदृश वर्णवाले मल को बार २ विसर्जन करता है, मुंह से हमेशा फेन [झाग] टपकता है, उसके ( मरे हुए रोगी के) हृदय को अग्नि भी ठीक २ जेला नहीं पाता है ' १ क्यों कि अंत समय में विषसर्वाग से आकर हृदय में स्थित हो जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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