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________________ विषरोगाधिकारः । (५१५). सर्वक्षीरघृतप्लुताः समसिताः सर्वात्मना योजिताः । क्षिप्रं ते शमयंति मण्डलविष कर्मेव धर्मा दश ॥ १२४ ॥ भावार्थ:-इस प्रकर वात व कफोद्रेक करनेवाले समस्त विषों को नाश करने में सर्वथा समर्थ अनेक योग कहे गये हैं। अब पित्ताद्रंक करनेवाले विषों के नाशक शीतगुणवीर्ययुक्त औषधियों के योग कहेंगे। सफेद सारिवा, जटामांसी, मुनक्का, लवंग दालचीनी, श्यामलता, [ कालीसर ] सोमलता, शल्लकी (शालईवृक्ष) दवा, लाल कटसरैया बेलफल, तितिडीक, अनार, अपराजिता, लिसोडा, मेथी, मुलैठी, गिलोय, चंदन, कुंदपुष्प, नीलकमल, संभालू, कैथ, कलिहारी, इन सब को चूर्ण कर सर्वप्रकार ( आठ प्रकार) के द्ध व घी में भिगो के रखें । उस में सब औषधियों के बराबर शक्कर मिला कर उपयोग में लावें तो मंडलिसौके विष शीघ्र ही शमन होते हैं जिस प्रकार कि उत्तमक्षमा आदि दशवर्मों के धारण से कर्मों का उपशम होता है ॥ १२३ ॥ १२४ ।। वाद्यादिसे निर्विषीकरण, प्रोक्तैः ख्यातप्रयोगैरसदृशविषवेगप्रणाझैरकायेंरालिप्तान वंशशंखप्रकटपटहभेरीमृदंगान् स्वनादैः ॥ कुर्युस्ते निर्विषत्वं विषयुतमनुजानामृतानाशु दिग्धान् । दृष्टास्यं तारणान्यप्यनुदिन (?) मचिरस्पर्शनात्स्तंभवृक्षाः ॥१२५॥ भावार्थ:-भयंकर से भयंकर विषों को नाश करने में सर्वथा समर्थ, जो ऊपर नौषधों के योग कहे गये हैं, उनको बांसुरी, शंख, पटह, भेरी, मृदंग आदि वाद्य विशेषों पर लेपन कर के उन के शब्द से विषपीडित मनुष्यों के जो कि मृतप्रायः हो चुके हैं, विष को दूर करें अर्थात् निर्विष करें ॥ १२५ ॥ सर्पके काटे विना विषकी अप्रवृति. सर्पाणामंगसंस्थं विषमधिकुरुते शीघ्रमागम्य दंष्ट्राग्रेषु व्याप्तस्थितं स्यात् सुजनमिव सुखस्पर्शतःशुक्रवद्वा ।। १ जब तमाम वायुमंडल विषदूषित हो जाता है इसी कारण से तमाम मनुष्य विषग्रसित होकर अस्यत दुःख से संयुक्त हैं और प्रत्येक मनुष्य के पास जाकर औषध प्रयोग करने के लिये शक्य नहीं है, ऐसी हालत में दिव्य विषनाशक प्रयोगोंको भेरी आदि वागे में लेपकर जोर से बजाना चाहिये । तब उन वाद्यों के शब्द जहां तक सुनाई देता है तहां तक के सर्व विष एकदम दूर हो जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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