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कल्याणकारके
संजीवन अगद.
मंजिष्ठामधुशिशिरजनी लाक्षशिला गुदी | पृथ्वी कांसहरेणुकां समधृतां संचूर्ण्य सम्मिश्रितम् ॥ सर्वत्रगणैस्समस्त लवणैर लोड्य संस्थापितं । श्रृंगे तन्मृतमप्यलं नरवरं संजीवनो जीवयेत् ॥ १२१ ॥
भावार्थ:-- मजीठ, मुलैठी, लाल सेंजिन, सफेद सेंजिन, हल्दी, लाख, मैनसिल हरताल, इंगुल, इलायची, रेणुका इन सब औषधियोंको समभागमें लेकर अच्छी तरह चूर्ण करें । उस चूर्ण में आठ प्रकार के मूत्र व पांच प्रकार के लवण को मिलाकर अच्छी तरह आलोडन [ मिलाना ] कर श्रृंग में रखें। यदि इसका उपयोग करें तो बिलकुल मरणोन्मुखसा हुआ मनुष्य को भी जिलाता है । इसलिये इस का नाम संजविन अगद है ॥ १२१ ॥
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श्वेतादि अगद
श्वेत बृधरकर्णिकां सकिणिहीं श्लेष्मातकं कट्फलं । व्याघ्रीमेघनिनादिकां बृहतिकामंकोलनीलीमपि ॥ तिक्ताबाबुसचालिनीफलरसेनालोड्य श्रृंगे स्थितं ।
यस्मिन्वेश्मनि तत्र नैव फणिनः कीटाः कुतो वा ग्रहाः ॥ १२२ ॥ भावार्थ:- अपराजिता, बूवरकर्णिका, चिरचिरा, लिसोडा, कायफल, छोटी कटेहरी,
पलाश, बडी कढ़ेहरी, अंकोल, नीलं, इनको चूर्ण कर के कडवी तुम्बी व चालिनी के फल - के रस में अच्छी तरह मिलाकर सींग में रखें । जिस घर में यह औषधि रहे, वहां सर्प कीट आदि विषजंतु कभी प्रवेश नहीं करते हैं । यहां तक कि कोई भी ग्रह भी प्रवेश नहीं कर पाते हैं ॥ १२२ ॥
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मंडलविषनाशक अगद.
प्रोक्ता वातकफोत्थिताखिलविषप्रध्वंसिनः सर्वथा । योगाः पित्तसमुद्भत्रेष्वपि विषेष्वत्यंतशीतान्विताः ॥ वक्ष्यतेऽपि सुगंधिकायवफलद्राक्षालवंगत्वचः । श्यामासोमरसादवाकुरवका बिल्वाम्लिका दाडिमाः ॥ १२३ ॥ श्वेताश्मंतकतापत्रमधुकं सत्कुंडलीचंदनं । कुंदेंदीवर सिंधुवारककपित्थंद्रापुष्पयुतां ॥
१क. पुस्तके ष ठोऽयं नोपलभ्यते ।
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