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________________ कल्याणकारके द्रव्यरसवीर्यविपाकशद्वाः पर्यायशब्दास्युस्तस्माद्रव्यरसवीर्यविपाकात्मकं वस्तुतत्त्वात्तेषां कथंचिद्भेदाभेदस्वरूपनिरूपणक्रमेण बहुवक्तव्यमस्तीति प्रपंचमुपसंहृत्य दृष्टेष्टप्रमाणाभ्यामविरुद्धात्मद्रव्यक्षेत्राकालभावचतुष्टयसन्निधानादस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वैकत्वानेकत्यवक्तव्यावक्तव्याद्यात्मकसापेक्षस्वभावद्रव्यरसवीर्यविपाकस्वरूपनिरूपणतः स्याद्वादमेवावलंबनं कृत्वा वैद्यशास्त्राचार्यः सुश्रुतोऽप्येवमाह ॥ पृथक्त्वदर्शिनामेष वादिना वादसंग्रहः । चतुर्णामपि सामग्यमिच्छंत्यत्र विपश्चितः ।। तव्यमात्मना किंचित् किंचिद्वीर्येण संयुतम् । किंचिद्रसविपाकाभ्यां दोषं हंति करोति वा ॥ पाको नास्ति विना वीर्याद्वीर्य नास्ति विना रसात् । रसो नास्ति विना द्रव्याद्रव्यं श्रेष्ठतमं स्मृतम् ॥ जन्म तु द्रव्यगुण[रस योरन्योन्यापेक्षिकं स्मृतम् । . अन्योन्यापेक्षिकं जन्म यथा स्याहदेहिनोः ॥ वीर्यसंज्ञा गुणा येऽष्टौ तेऽपि द्रव्याश्रयाः स्मृताः। बारबार खानेवाले, पित्तकर [ मांसरहित ] गुड, मूंगका कपाय, दूध, दही, मधु, घृत, ठंडा, गरम, ताजे बासे रूक्ष स्निग्ध आदि अनेक प्रकारके विरुद्ध बहुतसे आहारोंको ग्रहण करनेवाले सन्यासियोंको वह संयोगजन्य आहार होनेपर भी तुष्टि पुष्टि आयुबलकी वृद्धिहेतुक देखा जाता है । एवं विरुद्ध होनेपर भी अविरुद्ध देखे जाते हैं । अर्थात् ऐसे संयुक्त आहारोंको ग्रहण करने पर भी वे भिक्षुक साधु हृष्ट पुष्ट देखे जाते हैं । इसलिए द्रव्य, क्षेत्र काल, भावके बलसे सर्व पदार्थ विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध होते हैं। अत एव स्याद्वादवादि वैद्य सुश्रुताचार्य भी इस प्रकार कहते हैं कि यद्यपि विरुद्ध पदार्थीका भक्षण करना अपायकारक है । तथापि उन पदार्थोंको खानेका अभ्यास नित्य करने से, अल्प प्रमाणमें खानेसे, जठराग्नि अत्यधिक प्रदीप्त रहनेपर, खानेवाला तरुण व स्वस्थ रहनेपर स्निग्ध पदार्थों के भक्षण के साथ कसरत करने वाले होनेपर, विरुद्ध पदार्थो के खाने पर भी अविरुद्ध ही होते हैं अर्थात् उन पदार्थों से कोई हानि नहीं होती। इसलिए पदार्थोमें अनेकांतात्मक धर्म रहते हैं। अतएव जैन शासनमें प्रतिपादित आयुर्वेद ही सर्व प्राणियोके लिए श्रेयरकर है इस प्रकार निश्चय किया जाता है। २ सुश्रुतसंहिता स्त्रस्थान अ-४१ श्लो. १३.१४-१५-१६:१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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