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अथ हिताहिताध्यायः।
(७१७)
योगतश्च पराणि विषसदृशान्येव भवत्येवं प्रतिपादितं, तदप्रसिद्धविरुद्धानेकांतिकं वर्तते । केषांचिन्मनुष्याणां सर्वभक्षिणामध्यशनशीलानां पित्तममांसयुतगुडमुद्गमूलकषाय । दुग्धदधिमधुघृतशीतोष्णनवपुराणातिजीर्णातितरुणातिरूक्षातिस्निग्धातितरमयुक्त.बहुभक्षणभोजनपानकाद्यनेकविधाविरुद्धाविरुद्धद्रव्यकदंबकाकारकरं बह्वाहारनिषेविणां भिक्षाशिनां भिक्षूणामतिबलायुस्तुष्टिपुष्टिजननत्वाद्विरुद्वान्यप्यविरुद्धान्येवोपलक्षायितव्यानि भवति । तथा विरुद्धाविरुद्धद्रव्यक्षेत्रकालभावतः सर्वाणि विरुद्धाविरुद्धान्येव भवति । तत् स्याद्वादवादिवैद्यशास्त्राचार्यः सुश्रुतोऽप्येवमाह ॥
सात्म्यतोऽल्पतया वाऽपि तीक्ष्णाग्नेस्तरुणस्य च । .
स्निग्धव्यायामरिना विरुद्धं वितथं भवेत् ॥ .. तस्माद्वस्तूनामनेकांतात्मकत्वादाहतमेव वैद्यमिति निश्चीयते । तथा चैवमाह, केषांचिदेकांतवादिनां पृथग्दर्शिनां द्रव्यरसवीर्यविपाकस्त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वाम्टकटुकात्मकः प्रत्येकमन्यवादिनां मतमत्यंत दूषणास्पदं वर्तते इति । किंतु द्रव्यं, रसायस्निग्धं तीक्ष्णं पिच्छिलं रूक्षमुष्णं शीतं वैशयं मृदुत्वं च वीर्यविपाकेभ्यो भिन्नं वा स्यादभिन्नं वा । यदि भिन्नं स्यात् गोविषाणवत् पृथग्दृश्येतेति । यद्यभिन्नमेकमेव स्यादिंद्रशक्रपुरंदरवत् ।
चाहिये । घावके विषको चूसकर निकालना, छेदन करना, जलाना ये क्रियायें विषचिकित्सामें सर्वत्र उपयोगी हैं। इसीप्रकार अत्यंत तीक्ष्ण शस्त्रोंका भी प्रयोग विष ( रक्त ) स्रावण विधानमें अत्यंत सुखकर हो सकता है। कहा भी है। शरीर में हलकेपनेका अनुभव होना, रोगका वेग कम होना, मनकी प्रसन्नता ये अछीतरह रक्त विस्रावण होनेके लक्षण हैं । इसप्रकार अग्नि, विष, क्षार आदिको जो सर्वथा हितकारक या सर्वथा अहितकारक ही बतलाता है उसे स्ववचनविरोधदोषका भी प्रसंग आसकता है । उसीप्रकार यदि माना जाय तो चिकित्साविधिमें सर्व प्राणियों को संपूर्ण रोगोंको प्रशमन शरनेके लिए विष, क्षार, अस्त्र और अग्नि कर्मका जो प्रयोग बतलाया गया है उसका विरोध होगा। कहा भी है कि कोई रोग एक कर्मसे चिकित्सित होता है, कोई दो कोसे और कोई तीन कर्मोंसे एवं कोई २ विकार चारों ही कर्मों [ विष,क्षार, अग्नि अत्र ] से साध्य होते हैं। इसलिये एकांतरूप से किसी एकका आश्रय करना उचित नहीं है।
इसी प्रकार संयोगसे अन्य पदार्थ भी विषसदृश ही होते हैं ऐसा जो कहा है यह असिद्ध विरुद्ध और अनेकांतिक दोषसे दूषित है। कोई २ मनुष्य सब कुछ खानेवाले,
१ दीप्ताग्ने इति मुद्रितपुस्तके. सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान अ. २१ ला २२
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