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महामयारोगाधिकारः
(१९१.)
अथैकादशः परिच्छेद.
महामयाधिकारः ।
मंगलाचरण व प्रतिक्षा. श्रियामधीशं परमेश्वरं जिनं । प्रमाणनिक्षेपनयमवादिनम् ॥ प्रणम्य सर्वामयलक्षणस्तह । प्रवक्ष्यते सिद्धचिकित्सित क्रमात् ॥ १ ॥
भावार्थ:-अंतरंग बहिरंग लक्ष्मीके स्वामी, परमैश्वर्यसे युक्त, प्रमाण, नय व निक्षेप के द्वारा वस्तुतत्वको कथन करनेवाले श्री जिनद्रेभगवानको प्रणाम करके क्रमशः समस्त रोगोंके लक्षणों के साथ सिद्ध चिकित्सा का वर्णन भी किया जायगा ॥१॥
प्रतिज्ञा न कश्चिदप्यस्ति विकारसंभवो । विना समस्तैरिह दोपकारणैः ॥ तथापि नामाकृतिलक्षणेक्षितानेशपरोगान्सचिकित्सितान ब्रुवे ॥ २ ॥
भावार्थ:--वात पित्त कफ, इस प्रकार तीन दोषोंके बिना कोई विकार [रोग] की उत्पत्ति होनेकी संभावना नहीं । फिर भी रोगोंके नाम, आकृति, लक्षण, आदिकोंको कथन करते हुए, तत्तद्रोगोंकी चिकित्सा भी कहेंगे ॥ २ ॥
वर्णनाक्रम महामयानादित एव लक्षण-स्सरिष्टवगैरपि तक्रियाक्रमैः ।। ततः परं क्षुद्रुरुजागणानथ । ब्रवीमि शालाक्यविषौषधैस्सह ॥ ३ ॥
भावार्थ:-सबसे पहिले महारोग उनके लक्षण, मरणसूचक चिन्ह, व उनकी चिकि सा भी क्रमसे कहेंगे । तदनंतर क्षुद्ररोग समुदायोंका, शालाक्यतंत्र व अगदतंत्रा का वर्णन करेंगे ॥ ३ ॥
महामय संज्ञा। महामया इत्यखिलामयाधिकाः । प्रमेहकुष्ठोदरदुष्टवातजः ॥ समूढगर्भ गुदांकुराश्मरी । भगंदरं चाहुरशेषवेदिनः ॥ ४ ॥
भावार्थ:--तब विषयको जाननेवाले [ सर्वज्ञ ] प्रमेह, कुष्ठ, उदररोग वातव्याधि, मूइगर्भ, बवासीर, अश्मरी, भगंदर, इनको महारोग कहते हैं || ४ ।।
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