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कल्याणकारके
बही, काच, [लिंगनाश ] यदि वातिक हो : तो उससे, दृष्टिमण्डल लाल व स्थिर होता है ॥२.१८॥ . . . . .
पित्त कफज वर्ण. तथैव पित्तादतिनीलनामकं । भवेत् परिम्लायि च पिंगलात्मकं ॥ १. कफात्सितं स्यात् इह दृष्टिमण्डलं । विमृद्यमाने विलयं प्रयात्यलं ।। २१९ ... . .भावार्थ:-पित्तसे दृष्टि मण्डल नील, परिगलयी [म्लानतायुक्त अर्थात् पीला व नील मिला हुआ वर्ण ] अथवा पिंगले हो जाता है। कंफसे सफेद होता है और दृष्टि मण्डलको मलने पर वर्ण विलय नाश] होता है ॥२१॥
रक्तज सन्निपातजवर्ण. प्रवालसंकाशमयापि वासितं । भवेञ्च रक्तादिह दृष्टिमण्डलं । विचित्रवर्ण परितस्त्रिदोषजं । प्रकीर्तिताः षड्विधलिंगनाशकाः ॥ २२० ।
अर्थ-रक्त विकारसे दृष्टि मंडल प्रवाल के समान लाल या काला होजाता है। एवं सन्निपातसे विचित्र [नानावर्ण] वर्ण युक्त होता है । इस प्रकार छह प्रकारके लिंगनाशक रोग कहे गये हैं ॥२२०॥
विदग्धष्टिनामक षविध रोग व पित्तविदग्ध लक्षण. स्वदृष्टिरोगानथ पब्रवीम्यहं । प्रदुष्टपित्तेन कलंकितान्स्वयं । सुपीतलं पित्तविदग्धदृष्टिरप्यतीव पीतानखिलान्मपश्यति ॥२२१॥
१ नोट:-इस सानिपातिक लिंगनाश लक्षण कथनके बाद परिम्लायि नामक "वित्तजन्य रोग का लक्षण ग्रंथांतर में पाया जाता है । जो इसमें नहीं है। लेकिन इसका होना अत्यंत जरूरी है। अन्यथा - षड्संख्या की पूर्ति नहीं होती। इस के लक्षण को आचार्य ने अवश्य ही लिखा है । लेकिन प्रतिलिपिकारोंके दुर्लक्ष्य से यह छूट गया है। क्यों कि स्वयं आचार्य ॥ षड़िवध लिंगनाशकाः " " परिप्लायि च." ऐसा स्पष्ट लिखते हैं । इसका लक्षण हम लिख देते हैं ।
.....परिभलावी लक्षण:---रक्त के तेजसे मूठित पित्तसे परिम्लायी रोग उत्पन्न होता है। इस से रोगीको सत्र दिशायें पीली दिखती हैं और सर्वत्र उदय को प्राप्त सूर्यके समान दिखता है । तथा वृक्ष ऐसे दिखने लगते हैं कि खद्योत ( ज्योतिरिंगण) व किसी प्रकाश विशेषसे आच्छादित हों। इसे परिम्लायी रोग कहते हैं।
२ पीतनीलो वर्णः। ३ दीपाशेखातुल्यवर्ण | दीपके शिखाके सदृश वर्ग।
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