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________________ क्षुदरोगाधिकारः (३६१ ) भावार्थ:- अब दृष्टिगत छह रोगोंको कहेंगे, दूषित पित्तसे वह दृष्टि कलंकित होकर एकदम पीली होती है । और वह रोगी सर्व पदार्थों को पीले ही रंग में देखता है इसे पित्तविग्दृष्टि रोग कहते हैं ।। २२१ ॥ विदग्धदृष्टि लक्षण, तथैव स श्लेष्मविदग्धदृष्टिर- । प्यतीव शुक्लान्स्वयमग्रतः स्थितान् ॥ शशांक खस्पीटकामलद्युतीन् । प्रपश्यति स्थावर जंगमान् भृशं ||२२२॥ भावार्थ:- श्लेष्म विकारसे पीडित नेत्ररोगी अग्रभागमें स्थित सर्व स्थावर जंगम पदार्थों को चंद्रमा, शंख स्फटिक के समान सफेद रूपसे देखता है अर्थात् उसे सफेद ही दीखते हैं । इसे कफविग्दृष्टि कहते हैं ॥ २२२ ॥ धूमदर्शी लक्षण. शिरोऽभितोष्मश्रमशोकवेदना । प्रपीडिता दृष्टिरिहा खिलान् भुवि । rusयतीह प्रबलातिधूमवान् । स धूपदर्शति वदति तं बुधाः ॥२२३॥ भावार्थ:- शिर में उष्णताका प्रवेश अत्यधिक श्रम, शोक व सिरदर्द इनसे पीडित दृष्टि लोकके समस्त पदार्थो को धुंदला देखती है । इसे धूमदर्शी ऐसा विद्वानोनें कहां है ।। २२३ ॥ हस्वजाति लक्षण. भवेद्यदास्वता विजातिको । गढ़ों नृणां दृष्टिगतः सतेन ते ॥ भृशं प्रपश्यंति पुरो व्यवस्थितान् । तदोन्नतान्ह्रस्व निभान्सदोषतः ॥२२४॥ भावार्थ::- जब आंखो में ह्रस्वजातिक नामक रोग होता है तब वह रोगी सामने २ बडे २ पदार्थों को भी छोटे के समान देखता है अर्थात् उसे बडे पदार्थ छोटे दीखते हैं ।। २२४ ॥ ' नकुलांध्य लक्षण. यदा भुवि द्योतितदृष्टिरुज्वला | नरस्य रात्रौ नकुलस्य दृष्टिवत् । दिवा विचित्राणि स पश्यति ध्रुवं । भवेद्विकारो नकुलांध्यनामकम् || २२५ अर्थ — जब आंखें रात्रिमें नौलेके आंख के समान प्रकाशवान् व उज्वल होती हैं। अर्थात् चमकती हैं जिन से दिनमें विचित्र रूप देखने में आता हो, उसे नकुलांध्यरोग कहते हैं ॥२२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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