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कल्याणकारके
गम्भीरष्टिलक्षण.
प्रविष्टदृष्टिः पवनगपीडिता । रुजाभिभूतातिविकुंभिताकृतिः । भवेच्च गंभीरविशेषसंज्ञया । समन्विता दुष्टविशिष्टदृष्टिका ॥ २२६ ॥
( ३६२ )
भावार्थ -वातसे पीडित आंख, अन्दर घुसी हुई अधिक पीडायुक्त, कुंभके सदृश आकृतिवाली मालूम होती हो ऐसे दूषित विशिष्टदृष्टिको गम्भीरदृष्टि के नामसे कहते हैं ।। २२६ ॥
निमित्तजलक्षण
तथैव वाह्याराविहामयौ । निमित्ततोऽन्यो ह्यनिमित्ततश्च यः । निमित्ततस्तत्र महाभिघातजो | भवेदभिष्यंदविकल्पलक्षणः ॥ २२७॥
भावार्थ - आगंतुक लिंगनाश दो प्रकारका है एक निमित्तजन्य, दूसरा अनिमित्त जन्य । इनमें महान् अभिघात [ विषवृक्ष के फलसे स्पर्शित पवनके मस्तक में स्पर्श होना, चोट लगना इत्यादि ] से उत्पन्न सन्निपातिक अभिष्यंदके लक्षणसे संयुक्त लिंगनाश निमित्तजन्य कहलाता है ॥२२७॥
अनिमित्तजन्यलक्षण.
दिवाकरैद्रोरगदीप्तवन्मणि- । प्रभासमीक्षाहतनष्टदृष्टिजः ।
व्यपेतदोषः प्रकृतिस्त्ररूपवान् । विकार एषोऽप्यनिमित्तलक्षणः ॥२२८॥
भावार्थ- सूर्य, इंद्र, नागजाति के देव व विशेष प्रकाशयुक्त हीरा आदि रत्नों को टकटकी लगाकर देखनेसे आंखकी शक्ति ( दर्शनशक्ति ) नष्ट होकर जो लिंगनाश उत्पन्न होता है वह दोषोंसे संयुक्त नहीं होता है, और अपनी प्राकृतिक स्वरूप में ही रहता है इसे अनिमित्तजन्य लिंगनाश कहते हैं ।। २२८॥
नेत्ररोगों का उपसंहार.
इत्येवं नयनगतास्समस्तरोगाः ।
प्रत्येकं प्रकटितलक्षणेक्षितास्ते ॥ संक्षेपादिह निखिलक्रियाविशेषै- ।
restore विधिनात्र साधयेत्तान् ।। २२९ ।।
भावार्थ:- इस प्रकार नेत्रगत समस्त रोगों को उन प्रत्येकों के लक्षण नाम
आदि के साथ संक्षेपसे प्रकट कर चुके हैं । उनको उनको सम्पूर्ण क्रिया (चिकित्साक्रम ) विशेष औषधियों से, विधिपूर्वक कुशल चैव साधे अर्थात् चिकित्सा करें ॥ १२९ ॥
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