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क्षुद्ररोगाधिकारः।
छहत्तर नेत्ररोगों की गणना, वाताधैर्दशदश संभवंति रोगा-। स्तत्रापि त्रय अधिकाः कफेन जाताः ॥ रक्तादायथ दशषटसर्वजास्ते ।।
विशंत्या पुनरिह पंच वाद्यजी द्वौ ॥ २३० ॥ भावार्थ:-वात आदि प्रत्येक दोष से दस २ नेत्र रोग उत्पन्न होते हैं। इन में भी कफ से तीन अधिक होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि वातसे दस, पित्तसे दस, कफसे तेरह रोग उत्पन्न होते हैं। रक्त से सोलह, सन्निपात से पच्चीस और आगंतुकसे दो रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २३० ॥
वातजअसाध्य रोग. रोगास्ते षडधिकसप्ततिश्च सर्वे । तत्रादो हतसहिताधिमंथरागाः ॥ गंभीरा दृनिमिपाहतं च वर्मा
साध्याः स्युः पवनकृताश्चतुर्विकल्पाः ॥ २३१ ॥ भावार्थ:-उपरोक्त प्रकार वे सब अक्षिरोग मिलकर छहतर प्रकार से होते हैं । इन में वातसे उत्पन्न हताधिमंथ, गभीर दीष्ट, निमिष, वातहत वर्म, ये चार प्रकार के रोग असाध्य होते हैं ॥ २३१
वातज याप्य, साध्य रोग. काचाख्योऽरुण इति मारुतात्स याप्यः । शुष्काक्षिप्रपचनवातर्पययोऽसी ॥ स्यंदश्चाप्यभिहिताधिमंथरोगः ।
साध्याः स्युः पवनकृतान्यतोतिवातः ॥ २३२ ॥ भावार्थ:-वात से उत्पन्न, काचनामक जिसका अपर नाम अरुण रोग है वह याप्य है । एवं शुष्काक्षिपाक, वातपर्यय, वाताभियंद, बाताधिमंथ और अन्यतोवात ये पांच साध्य हैं ।। २३२ ।।
पित्तज, असाध्य, याप्यरोग. हस्वादिः पुनरपि जातिकोऽथवारि-। ... साववेत्यभिहितपित्तजावसाध्यौ ॥
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