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________________ ( 35 ) PARANAKAAAAAAnnn मरिचमरिचमरिचं तिक्ततिक्तं च तिक्तम् । कणकणकणमूळं कृष्णकृष्णं च कृष्णम् । मेघ मेघं च मेघो रजरजरजनी यष्टियष्टयाह्वयष्टी ॥ वज्र वज्रं च व जलजलजलजं ,गिभृगी च भृगम् । श्रृंगं श्रृंगं च श्रृंगं हरहरहरही वालुकं वालुकं वा ॥ कंटत्कंटकर्कटं शिवशिवशिवनी नंदिनंदी च नंदी। हेमं हेमं च हेमं वृषवृषवृषभा अग्निअग्नी च अग्ने ॥ वातिर्वातं च पैत्यं विषहरनिमिषं पूजितं पूज्यपादैः !! इससे स्पष्ट है कि पृथ्यपादका वैद्यक ग्रंथ महत्वपूर्ण व अनेक सिद्धौषध प्रयोगोंसे युक्त है । परंतु खेद है कि आज हम उसका दर्शन भी नहीं कर सकते उपर्युक्त कल्याण कारक व शालाक्यतंत्रके अलावा पूज्यपादने वैद्यामृत नामक वैद्यकग्रंथकी रचना भी की है। यह ग्रंथ कानडीमें होगा ऐसा अनुमान है । गोम्मटदेव मुनिने पूज्यपादके द्वारा निर्मित वैद्यामृत नामक ग्रंथ का निम्न लिखित प्रकार उल्लेख किया है। सिद्धांतस्य च वेदिनो जिनमते जैनेंद्रपाणिन्य च । कल्पव्याकरणाय ते भगवते देव्यालियाराधिपा (?) | श्रीजैनेंद्रवचस्सुधारसवरैः वैद्यामृतो धार्यते । श्रीपादास्य सदा नमोस्तु गुरवे श्रीपूज्यपादौ मुनेः ॥ ___समंतभद्र. पूज्यपाद के पहिले महर्षि समंतभद्र हर एक विषय में अद्वितीय विद्वत्ता को धारण करनेवाले हुए। आपने न्याय, सिद्धांत के विषय में जिस प्रकार प्रौढ प्रभुत्व को प्राप्त किया था उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय में भी अद्वितीय विद्वत्ता को प्राप्त किया था। आप के द्वारा सिद्धांतरसायनकल्प नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना अठारह हजार श्लोक परिमित हुई थी। परंतु आज वह कीटोंका भक्ष्य बन गया है। कहीं २ उसके कुछ श्लोक मिलते हैं जिन को संग्रह करने पर २ . ३ हजार श्लोक सहज हो सकते हैं । अहिंसाधर्म-प्रेमी आचार्य ने अपने ग्रंथमें औषधयोंग में पूर्ण अहिंसाधर्म का ही समर्थन किया है । इसके अलावा आपके ग्रंथमें जैन पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग एवं संकेत भी तदनुकूल दिये गये हैं। इसलिए अर्थ करते समय जैनगत की प्रक्रियावोंको ध्यानमें रखकर अर्थ करना पडता है । उदाहरणार्थ “ रत्नत्रयौषध" का उल्लेख ग्रंथमें आया है । इसका अर्थ बत्रादि रत्नत्रययोंके द्वारा निर्मित औषधि ऐसा सर्व-सामान्याष्टिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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