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क्षुद्ररोगाधिकारः।
. (४२१) भावार्थः-उपरोक्त मूत्ररोग में विधि से विरेचन कराना चाहिये तथा पूर्व कथित उत्तरबस्ति का प्रयोग भी हितकर है.। अधिकमैथुन से यदि रुधिरस्राव होता हो तो उसपर बृहणविधि का प्रयोग करना चाहिये ॥ ५३ ॥
. कपिकच्छादि चूर्ण. कपिफलेक्षुरबीजकपिप्पली- । मधुक चूर्णमिहालुलित शनैः ॥ घृतसितैः प्रविलिह्य पिबन्पय- । स्तदनु मूत्रगदानखिलान् जयेत् ॥५४॥
भावार्थ:-तालमखाने का बीज, पीपल, कौच्च के बीज, मुलैठी इनका अच्छीतरह चूर्ण बनावें और उसमें घी व शक्कर मिलाकर चाटे, पीछेसे दूध पी । यह संपूर्ण मूत्र रोगोंको जीत लेता है ॥ ५४ ॥
. मूत्रामयत्न घृत. कपिबलातिबला मधुकेक्षुर । प्रकटगोक्षुरभूरिशतावरी-॥ प्रभुमृणालकशेरुकसोत्पलां- । बुजफलांशुमती सह विनया ॥५५॥ समधृतानि विचूर्ण्य विभावितो- । दकचतुष्कमिदं पयसा चतु- ॥ र्गुणयुतेन तुला गुडसाधितं । घृतवराढकमुत्कटगंधवत् ॥ ५६. ॥ घृतमिदं सततं पिवतां नृणां । अधिकवृष्यबलायुररोगता ॥ भवति गर्भवती वनिता प्रजा । प्रतिदिनं पयसैव सुभोजनं ॥ ५७ ॥
भावार्थ:-कौंच के बीज, खरेंटी, गंगेरेन, मुलैठी, तालमखाना, गोखुर, शतावरी, प्रभु [ ? ] कमलनाल, कसेरु, नीलोपल, कमल, जायफल, शालपर्णी, [सरिबन पृश्नपर्णी [ पिठवन ] इन सब को समभाग लेकर, सूदम चूर्ण कर के इस में चतुर्गुण पानी मिलावें। इस प्रकार तैयार किए हुए यह कल्क, व चतुर्गुण गायके दूध, ५ सेर गुड के साथ चार सेर, ( यहां ६४ तोले का एक सेर जानना ) सुगंध घृत को सिद्ध करें । इस घृत को प्रतिदिन सेवन करने वाले मनुष्य को वृष्य (वीर्य वृद्धि होकर काम शक्ति बढना.) होता है। बल, और आयु वृद्धिगत होते हैं और वह निरोगी होता है। स्त्री गर्भवती होकर पुत्र प्रसूत होजाती है। इस घृत को सेवन करते समय प्रतिदिन केवल दूध के साथ भोजन करना चाहिये [ मिरच, नमक, मसाला, खटाई आदि नहीं खाना चाहिये ] ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥
१ यह घृत से चतुर्थाश डाले ।
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