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बालग्रहभूततंत्राधिकारः ।
(४६२)
भावार्थ:-भूतों के पीडन [व्यंतर जाति के देव ] व विषप्रयोग जन्य मसूरिका रोग को उन के आवेश व लक्षणों से पहिचान कर, भूतविद्या मंत्राविद्या व विषतंत्र को जाननेवाला वैद्य, उनके अनुकूल औषधि व मंत्रों से उन्हे जीतना चाहिये ॥ ६५॥
भूतादि देवतायें मनुष्योंको कष्ट देने का कारण. व्यंतरा भुवि वसंति संततं पीडयंत्यपि नरान्समायया! पूर्वजन्मकृतशत्रुरोषतः क्रीडनार्थमथवा जिघांसया ॥ ६६ ॥
भावार्थ:-भूत पिशाचादिक व्यंतरगण इस मध्यलोक में यत्र तत्रा वास करते हैं । वे सदा पूर्वजन्मकी शत्रुतासे, विनोद के लिये अथवा मारने की इच्छा से पीडा देते रहते हैं ॥ ६६ ॥
ग्रहबाधायोग्य मनुष्य. यत्र पंचविधसद्गुरून्सदा नार्चयंति कुसुमाक्षतादिभिः । पापिनः परधनांगनानुगा भुंजतेन्नमतिविन्न पूजयन् ।। ६७ ।। . पात्रदानवलिभैक्षवर्जिता भिन्नशून्यगृहवासिनस्तु ये । मांसभक्षमधुमद्यपायिनः तान्विशंति कुपिता महाग्रहाः ॥ ६८ ।।
भावार्थ:-जो प्रतिनित्य, पुष्प अक्षत आदि अष्टद्रव्यों से पंचपरम गुरुओं (पंचपरमेष्ठी ) की पूजा नहीं करते हैं, हिंसा आदि पाप कार्यों को करते हैं, परधन व परस्त्रियों में प्रेम रखते हैं, अत्यंत विद्वान होने पर भी देवपूजा न कर के ही भोजन करते हैं, खराब शून्य गृह में वास करते हैं, मैद्य, मांस, मधु खाते हैं, पीते हैं, ऐसे मनुष्यों को, कुपित महा गृह ( देवता ) प्रवेश करते हैं अर्थात् कष्ट पहुंचाते हैं ।। ६७ ॥६८॥
बालग्रह के कारण, बालकानिह बहुप्रकारतस्तजितानपि च ताडितान्मुहः । त्रासितानशुचिशून्यगेहसंवर्धितानभिभवति ते ग्रहाः ॥ ६९ ॥ .
१ जल, चंदन, अक्षत [चावल] पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप, फल, ये देवपूजाप्रधान आठ द्रव्य
२ अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, ये पांच जगत् के परमदेव व गुरु हैं।
३ मद्य, मांस, मधु इन का त्याग, जैनों के मूलगुणमें समावेश होता है । इन चीजों को जो स्माग नहीं करता है, वह वास्तव में जैन कहलाने योग्य नहीं हैं।
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